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________________ 331 गाथा ३७ कारण प्रकाशित नहीं करता। वास्तव में तो परसंबंधी अपना जो ज्ञान है, उसे ही वह प्रकाशित करता है। ____ भाई! चैतन्य की स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य को जिसने जाना नहीं, जिसने अनुभव में उसकी सत्ता को स्वीकार किया नहीं, उसे धर्म भी कहाँ से हो, कैसे हो? प्रश्न –यहाँ 'ज्ञेयज्ञायकभावमात्र से' - ऐसा जो कहा, उसका क्या तात्पर्य है? उत्तर – तात्पर्य यह है कि 'मैं ज्ञायक हूँ और ये परज्ञेय हैं' - यह तो कहनेमात्र का संबंध है। ऐसा ज्ञेय-ज्ञायक संबंध होने से परद्रव्यों का जैसा स्वरूप है, वैसा ज्ञान होता है । परन्तु प्रगट स्वाद में आने पर स्वभावभेद के कारण 'वे मुझसे भिन्न हैं' - ऐसा ज्ञान भी होता है। मेरी आत्मा का स्वाद अतीन्द्रिय आनन्द है, जबकि धर्मास्तिकाय आदि परज्ञेय मुझसे भिन्न हैं। अहाहा! भगवान के द्वारा देखे-जाने गये धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाश, काल, अन्यजीव व कर्म आदि पुद्गलद्रव्य - ये सब परज्ञेय हैं और मैं तो ज्ञानस्वभाव में स्थित ज्ञायक अतीन्द्रिय आनन्द से भरा हुआ भगवान हूँ ।" वस्तुत: बात यह है कि आत्मा स्वभाव से ही स्व-परप्रकाशक है। अत: वह स्वभाव से ही स्व को भी जानता है और पर को भी जानता है। वह पर को पर के कारण नहीं जानता है, अपितु अपने स्वभाव के कारण ही जानता है। ऐसा होने पर भी जो पर पदार्थ सहजभाव से ज्ञान में ज्ञात होते हैं, अज्ञानी जीव उन्हें अपना मान लेता है, उनमें अपनत्व स्थापित कर लेता है, उनमें ममत्व कर लेता है; वह उनसे निर्ममत्व नहीं रह पाता है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १२१ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १२३ ३. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १२५
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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