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________________ 403 गाथा ४९ (२) अपने नियतस्वभाव से अनियतसंस्थानवाले अनन्त शरीरों में रहता है; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। (३) संस्थान नामक नामकर्म का विपाक (फल) पुद्गलों में ही कहा जाता है, जीव में नहीं; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। (४) भिन्न-भिन्न संस्थानरूप से परिणमित समस्त वस्तुओं के स्वरूप के साथ स्वाभाविक संवेदन शक्ति से संबंधित होने पर भी जीव समस्त लोक के मिलाप से रहित है; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। - इसप्रकार चार प्रकार से संस्थान के निषेध से अथवा संस्थान के कथन के निषेध से भगवान आत्मा अनिर्दिष्टसंस्थान है। (१) षड्द्रव्यात्मक लोक ज्ञेय है, अत: व्यक्त है और जीव उससे भिन्न है; अतः अव्यक्त है। (२) कषायचक्ररूप भावकभाव व्यक्त है और जीव उससे भिन्न है; अत: अव्यक्त है। (३) चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियाँ निमग्न होने से जीव अव्यक्त है। (४) क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं होने से जीव अव्यक्त है। (५) व्यक्तता और अव्यक्तता एकमेक मिश्रितरूप से प्रतिभासित होने पर भी वह केवल व्यक्तता को स्पर्श नहीं करता; अत: जीव अव्यक्त है। (६) स्वयं अपने से ही बाह्याभ्यन्तर स्पष्ट अनुभव में आने पर भी व्यक्तता के प्रति उदासीन रूप से प्रकाशमान है; अत: जीव अव्यक्त है। - इसप्रकार छह प्रकार से व्यक्तता के निषेध से भगवान आत्मा अव्यक्त है । - इसप्रकार जीव में रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान और व्यक्तता का अभाव होने पर भी वह स्वसंवेदन ज्ञान के बल से स्वयं
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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