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________________ समयसार अनुशीलन सदा प्रत्यक्ष होने से अकेले अनुमान से ही नहीं जाना जाता; अलिंगग्रहण है। अतः 404 जीव जिसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानियों को सौंप दिया है; जो समस्त लोकालोक को ग्रासीभूत करके अत्यन्त तृप्ति से मंथर हो गया है, उपशान्त हो गया है, अत्यन्त स्वरूप सौख्य से तृप्त होने के कारण बाहर निकलने को अनुद्यमी हो गया है; अत: कभी भी किंचित्मात्र भी चलायमान नहीं होता और जीव से भिन्न अन्यद्रव्यों में नहीं पाये जाने के कारण स्वभावभूत है ऐसा चेतनागुण समस्त विवादों को नाश करनेवाला है । सदा अपने अनुभव में आनेवाले ऐसे इस चेतनागुण के द्वारा जीव सदा प्रकाशमान है; अतः जीव चेतनागुणवाला है। - इसप्रकार इन नौ विशेषणों से युक्त, चैतन्यरूप, निर्मल प्रकाशवाला, एक भगवान आत्मा परमार्थस्वरूप जीव है, जो इसलोक में भिन्नज्योतिस्वरूप टंकोत्कीर्ण विराजमान है ।" रस, रूप, गंध और स्पर्श ये चार पुद्गल के गुण हैं और शब्द पुद्गल की पर्याय है । ये पाँचों पाँच इन्द्रियों के विषय हैं । यहाँ इन पाँचों के निषेधरूप पाँच विशेषण आरंभ में ही लिए गये हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि परमार्थ जीव इन्द्रियों का विषय नहीं है, अतः इन्द्रियों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता। विशेषकर 'अशब्द' विशेषण से यह संकेत मिलता है; क्योंकि पुद्गल के चार गुणों की बात तो ठीक, परन्तु पर्याय में पुद्गल की 'शब्द' पर्याय को ही क्यों लिया गया; रूप, रस आदि गुणों की पर्यायों को भी लिया जा सकता था । कर्ण इन्द्रिय का विषय होने से ही शब्द को लिया गया है; क्योंकि चार इन्द्रियों के विषय तो स्पर्श, रस, गंध और रूप के रूप में आ ही गये थे; कर्ण इन्द्रिय का विषय ही शेष रहा था, जो शब्द को लेने से आ गया।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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