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________________ समयसार गाथा ३६ णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ॥ ३६॥ ( हरिगीत ) मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है मोह निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ ३६॥ स्वपर और सिद्धान्त के जानकार आचार्यदेव ऐसा कहते हैं कि 'मोह मेरा कुछ भी नहीं है, मैं तो एक उपयोगमय ही हूँ' - ऐसा जो जानता है, वह मोह से निर्मम है। ___ गाथा के चौथे पद में कहा है कि समय को जाननेवाले ऐसा कहते हैं। 'समय' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। समय माने आत्मा, समय माने सिद्धान्त, समय माने शास्त्र/आगम, समय माने स्व और पर के भेदों में विभाजित होनेवाले छहों द्रव्य। इनके अतिरिक्त भी अनेक अर्थ होते हैं । अत: जहाँ जैसा प्रकरण हो, वहाँ वैसा ही अर्थ करना उचित माना जाता है। चूंकि यहाँ स्व-पर के विभाग की बात चल रही है, जिनसिद्धान्त की बात चल रही है; अत: यहाँ ऐसा अर्थ किया गया है कि स्वपर और सिद्धान्त के जानकार आचार्यदेव ऐसा कहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में इस गाथा की जो उत्थानिका लिखी, उसमें लिखा है कि इस अनुभूति से परभाव का भेदविज्ञान कैसे होता है - ऐसी आशंका करके पहले भावकभाव से भेदज्ञान कराते हैं। यह तो सर्वविदित ही है कि ३१वीं गाथा में ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष के परिहार की बात की थी और ३२वीं गाथा में भाव्य-भावकसंकर दोष के परिहार की। अब यहाँ ३६वीं गाथा में पहले भावक-भाव से
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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