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________________ 319 कलश २९ प्रेरणा दी जा रही है कि जबतक वृत्ति मलिन नहीं हो जाती और समझ भी फीकी नहीं हो जाती, उसके पूर्व ही उग्र पुरुषार्थ करके आत्मानुभूति प्रगट कर लेना चाहिए। यहाँ भाषा तो ऐसी है कि जबतक वृत्ति मलिन न हो पाई और परभाव के त्याग के दृष्टान्त की दृष्टि फीकी नहीं हो पाई; उसके पहले परभाव से भिन्न आत्मा की अनुभूति प्रगट हो गई; पर यह कहकर आचार्यदेव हमें उग्र पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देना चाहते हैं। साथ में यह भी बताना चाहते हैं कि आत्मानुभूति प्राप्त करने के पूर्व की भूमिका इसप्रकार की होती है। सभी आत्मार्थी भाई-बहिनों के साथ लगभग प्रतिदिन ही ऐसा होता है कि जब वे स्वाध्याय करते हैं, प्रवचन सुनते हैं तो उनके परिणामों में निर्मलता आती है, वृत्ति में निर्मलता आती है और आत्मा की बात भी समझ में आती है, चित्त में बैठती है; पर वहाँ से हटते ही वृत्ति मलिन हो जाती है, ज्ञानोपयोग भी अन्यत्र भटकने लगता है। यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि अरे भाई ! ऐसा नहीं होना चाहिए। होना तो ऐसा चाहिए कि जबतक वृत्ति में वेग उत्पन्न न हो, परभाव के त्याग की भावना फीकी न पड़े; उसके पहले ही आत्मानुभूति प्रगट हो जाना चाहिए। इसके लिए हमें निरन्तर भेदज्ञान की भावना को भाना चाहिए, नचाना चाहिए। चिन्तन की निरन्तरता में से ही रुचि की तीव्रता होगी, भावना का प्रबल वेग स्फुरायमान होगा और आत्मानुभूति की भूमिका तैयार होगी। ___धर्म का आरम्भ भी आत्मानुभूति से ही होता है और पूर्णता भी इसी की पूर्णता में। इससे परे धर्म को कल्पना भी नहीं की जा सकती। आत्मानुभूति ही आत्मधर्म है । साधक के लिए एकमात्र यही इष्ट है। इसे प्राप्त करना ही साधक का मूल प्रयोजन है । - मैं कौन हूँ, पृष्ठ १०
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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