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कलश ३
( छप्पय )
हौं निहचै तिहुंकाल, सुद्ध चेतनमय मूरति । पर परनति संजोग भई जड़ता विसफूरति ॥ मोहकर्म पर हेतु पाइ, चेतन पर रच्चइ ।
ज्यौं धतूर- रस पान करत, नर बहुविध नच्चइ ॥ अब समयसार वरनन करत, परम सुद्धता होहु मुझ । अनयास बनारसिदास कहि, मिटहु सहज भ्रम की अरुझ ॥
यद्यपि निश्चयनय की दृष्टि से तो मैं सदा (तीनों काल) शुद्ध चैतन्यमूर्ति ही हूँ; तथापि संयोगजन्य परपरिणति के कारण जड़ता स्फुरायमान हुई है । जिसप्रकार धतूरे का रस पीकर मनुष्य नाचने लगते हैं; उसीप्रकार मोहकर्म के उदयानुसार यह चेतन पर में रचतापचता है। अब इस समयसार के वर्णन से मुझे परमविशुद्धता प्राप्त हो और भ्रम से उत्पन्न उलझन समाप्त हो जावे ।
आचार्य श्री अमृतचन्द्र के साथ-साथ बनारसीदासजी भी उक्त छन्द में यही भावना व्यक्त कर रहे हैं ।
धर्मपिता सर्वज्ञ परमात्मा के विरह में एक जिनवाणी माता ही शरण है। उसकी उपेक्षा हमें अनाथ बना देगी। आज तो उसकी उपासना ही मानों जिनभक्ति, गुरुभक्ति और श्रुतभक्ति है। उपादान के रूप में निजात्मा और निमित्त के रूप में जिनवाणी ही आज हमारा सर्वस्व है । निश्चय से जो कुछ भी हमारे पास है, उसे निजात्मा में और व्यवहार से जो कुछ भी बुद्धि, बल, समय और धन आदि हमारे पास हैं, उन्हें जिनवाणी माता की उपासना, अध्ययन, मनन, चिन्तन, संरक्षण, प्रकाशन, प्रचार व प्रसार में ही लगा देने में इस मानवजीवन एवं जैनकुल में उत्पन्न होने की सार्थकता है ।
परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ १८४
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