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________________ 16 समयसार अनुशीलन आचार्यदेव के हृदय में कोई पापभावरूप मलिनता तो है नहीं; यही टीका लिखने, उपदेश देने आदि शुभभावरूप मलिनता ही है और वे उसका ही नाश चाहते हैं । तथा वे अच्छी तरह जानते हैं कि टीका करने के भाव से, टीका करने के भावरूप मलिनता समाप्त नहीं होगी । पर वे यह भी जानते हैं कि अन्तर में तीन कषाय के अभावरूप निर्मलता है, मिथ्यात्व के अभाव से पर में से अपनापन टूट गया है और अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में ही अपनापन आ गया है; उसके बल से, आत्मा की रुचि की तीव्रता से निश्चित ही इस विकल्प का भी नाश होगा और शुद्धोपयोग में उपयोग चला जायगा । 2 दूसरे कलश में उन्होंने यह भावना व्यक्त की थी कि जिनवाणी का प्रवाह निरन्तर चलता रहे, जिनवाणी नित्य ही प्रकाशित रहे । यह भावना तो उत्तम है, पर शुद्धोपयोग रूप तो नहीं है। बस आचार्यदेव को तो यही मलिनता भासित होती है और मानो उसके नाश के लिए शुद्धात्मा के जोरवाले शास्त्र की टीका लिखने का भाव उन्हें आया है । प्रकारान्तर से आचार्यदेव यह भी बताना चाहते हैं कि समयसार का पढ़ना-पढ़ाना, लिखना-लिखाना, उसकी टीका करना, गहराई से अध्ययन करना, मनन करना; उसकी विषयवस्तु का परिचय प्राप्त करना, घोलन करना परमविशुद्धि का कारण है । आचार्य अमृतचन्द्र इस कलश के माध्यम से स्वयं की वर्तमान पर्याय की स्थिति का ज्ञान भी कराना चाहते हैं और जिनवाणी के अध्ययन-मनन करने की, स्वाध्याय करने की प्रेरणा भी देना चाहते हैं । अतः मानों वे कह रहे हैं कि हे भव्यजीवों ! तुम इसका अध्ययन करो, मनन करो, पठन-पाठन करो, इसकी विषयवस्तु को जन-जन तक पहुँचाओ; ; तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा । कविवर बनारसीदासजी इस कलश भावानुवाद इसप्रकार करते
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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