SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 79 गाथा ७ यहाँ कोई कह सकता है कि पर्यायें भी द्रव्य के ही भेद हैं, अवस्तु नहीं; तब फिर उन्हें व्यवहार कैसे कहा जा सकता है ? उसका समाधान यह है - यह ठीक है, किन्तु यहाँ द्रव्यदृष्टि से अभेद को प्रधान करके उपदेश दिया है । अभेददृष्टि में भेद को गौण करने से ही अभेद भली-भाँति मालूम हो सकता है । इसलिए भेद को गौण करके उसे व्यवहार कहा है । यहाँ यह अभिप्राय है कि भेददृष्टि में भी निर्विकल्प दशा नहीं होती और सरागी के विकल्प होते रहते हैं; इसलिए जहाँ तक रागादिक दूर नहीं हो जाते, वहाँतक भेद को गौण करके अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराया गया है। वीतराग होने के बाद भेदाभेदरूप वस्तु का ज्ञाता हो जाता है, वहाँ नय का आलम्बन ही नहीं रहता । " पर्यायार्थिकनय का विषय होने से गुणभेद को भी पर्याय कहते हैं । गुणों को तो सहभावीपर्याय कहा ही जाता है। यहाँ जयचन्दजी के भावार्थ में जो पर्याय शब्द का प्रयोग हुआ है, वह गुण और गुणभेद के अर्थ में ही समझना चाहिए। भावार्थ को ध्यानपूर्वक पढ़ने से यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है । जयचन्दजी छाबड़ा के भावार्थ में उठाये गये प्रश्न और दिये गये उत्तर का जो स्पष्टीकरण स्वामीजी ने किया है, उसका सार इसप्रकार है - - " 'शिष्य का प्रश्न ठीक से समझना चाहिए। गुणभेदरूप पर्याय द्रव्य का ही अंश है, अवस्तु नहीं। यहाँ अवस्तु का अर्थ परवस्तु समझना चाहिए। जिसप्रकार शरीर परवस्तु है, कर्म परवस्तु है; भेदरूप पर्याय उसप्रकार की परवस्तु नहीं है। पर्याय तो स्वद्रव्य का ही अंश है, निश्चय है; उसे व्यवहारनय कैसे कहा जाता है ? यह प्रश्न है शिष्य अतः का ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy