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________________ 441 गाथा ५८-६० जिनेन्द्रदेव का उपदेश स्याद्वादरूप समझना ही सम्यक्ज्ञान है और सर्वथा-एकान्त, वह मिथ्यात्व है।" पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के भावार्थ के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं। "जब जीव को सिद्ध करना हो तो उसका असाधारण लक्षण त्रिकाली उपयोगस्वरूप ज्ञानगुण को मुख्य करके कथन किया जाता है। उससमय परस्पर द्रव्यों का निमित्त-नैमित्तिक भाव तथा निमित्त से होनेवाली सर्व पर्यायें गौण हो जाती हैं। पर्यायों का अभाव नहीं होता, बल्कि गौण होती हैं। अभेद वस्तु की दृष्टि में, एक समय की पर्याय या भेद दिखाई नहीं देते। पहले सातवीं गाथा में विशेष स्पष्टीकरण आ चुका है कि अभेद में भेद दिखाई नहीं देते। यदि भेद देखने लगे तो अभेद पर दृष्टि नहीं रहती। अत: अभेदवस्तु की दृष्टि से वस्तु में भेद नहीं है - ऐसा कहा है। ___ संसारपर्याय की दृष्टि से देखने पर संसार है, उदयभाव है। संसार नहीं है - ऐसा जो कहा है, वह तो त्रिकाली ध्रुवद्रव्य की अपेक्षा से कहा है । त्रिकाली स्वभाव को अभेददृष्टि से देखने पर अर्थात् वर्तमान पर्याय को अभेद की ओर ढालने पर, अभेद में भेद दिखाई नहीं देता। इसकारण त्रिकाली द्रव्य में जीव के भेद नहीं है - ऐसा कहा है; परन्तु पर्याय में है – इसकारण कथंचित् (व्यवहार सें) सत् है । तत्वार्थसूत्र में भी उदयभाव को जीवतत्व कहा है। पर्यायनय से राग, पुण्य आदि को जीवतत्त्व कहते हैं; परन्तु त्रिकाली द्रव्य की दृष्टि में पर्याय गौण हो जाती है। यदि कोई कहे कि संसार है ही नहीं, पर्याय में अशुद्धता है ही नहीं, तो भ्रान्ति है। प्रश्न -'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' - ऐसा किस अपेक्षा से है? उत्तर – पर्याय को गौण करके अभेद में दृष्टि करने पर वे भेद, अभेद __ में दिखाई नहीं देते – इस अपेक्षा से 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' कहो तो
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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