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________________ समयसार अनुशीलन 316 जाननेवाला ऐसा जानता है कि मैं तो स्वभाव से देखने-जाननेवाला हूँ। पुण्य-पाप के भाव मेरे स्वभाव नहीं होने से परभाव हैं । अत: उन्हें जानकर उनका त्याग करता है, अर्थात् वहाँ से हटकर स्वरूप में ठहरता है। इसीकारण जो पहले जानता है, वहीं पीछे त्याग करता है - ऐसा कहा है।" __ आत्मख्याति में जहाँ यह लिखा है कि जो पहले जानता है, वही बाद में त्याग करता है; वहीं अन्त में निष्कर्ष के रूप में यह भी लिखा है कि ज्ञान ही प्रत्याख्यान है । जब ज्ञान ही प्रत्याख्यान है तो फिर ज्ञान और प्रत्याख्यान में, जानने और त्यागने में कालभेद कैसे हो सकता है? ___ आत्मख्याति की यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि परभाव के त्याग के कर्तृत्व का नाम होने पर भी परमार्थ से परभाव के त्याग के कर्तृत्व का नाम भी नहीं है। वस्तुत: बात यह है कि आत्मा ने परभाव को जब ग्रहण ही नहीं किया है, तब त्याग की बात भी कैसे हो सकती है? अज्ञान से परवस्तु को अपनी जाना था, माना था; इसलिए पर को निज जानने-मानने का ही त्याग होता है । उसमें भी करना क्या है? मात्र यह जानना ही तो है कि परभाव मेरे नहीं है। यह जानने का नाम ही त्याग है । इसप्रकार जानना ही तो त्याग ठहरा, जानने के अतिरिक्त और क्या करना है, जिसे त्याग करना कहा जाय? इस बात को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यहाँ कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि के जो अस्थिरता का रागरूप परिणमन है ; उस रागरूप होकर रहने का मेरा स्वरूप नहीं है - ऐसा जानकर अन्दर स्वरूप में स्थिर हुआ, तब स्वरूप स्थिरता के काल में राग की उत्पत्ति ही नहीं हुई। अत: राग का त्याग किया - ऐसा नाममात्र कथन करने में आता है। परमार्थ से राग के त्याग का कर्ता १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ८१.-८२
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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