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________________ समयसार अनुशीलन यद्यपि उक्त कथन से सम्पूर्ण विषयवस्तु अत्यन्त स्पष्ट हो गई है, तथापि टीका के अन्तिम अंश के सम्बन्ध में स्वामीजी के विचारों से अवगत होना आवश्यक प्रतीत होता है, जो इसप्रकार है अपना ज्ञान होना और पर - राग का ज्ञान होना यह तो अपने ज्ञान की परणति का स्वपरप्रकाशक स्वभाव है । राग है, इसकारण राग का ज्ञान हुआ - ऐसा नहीं है; परन्तु उस काल में अपने ज्ञान की पर्याय स्वयं राग के ज्ञेयाकाररूप से परिणमित होती हुई, स्वयं ज्ञानाकाररूप हुई है । वह स्वयं से हुई है, स्वयं में हुई है; पर (ज्ञेय) से नहीं हुई है। अरूपी आत्मा को तो स्वयं को और पर को जाननेवाली ज्ञातृता ही है । यह ज्ञातृता स्वयं की है, स्वयं से सहज है, राग से नहीं और राग. की भी नहीं । राग है, इसलिए राग का जानना होता है - ऐसा नहीं है । वस्तु का सहजस्वरूप ही ऐसा है । 44 - 'स्वपर का प्रतिभास होना' यह स्वयं की सहज सामर्थ्य है । परपदार्थ हैं, इसकारण उनका ज्ञान होता है - ऐसा नहीं है । आत्मा की तो स्वपर को जाननेवाली ज्ञातृता है । उसमें कर्म व नोकर्म पुद्गल के हैं ऐसा ज्ञात होता है । — 240 — १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, २. वही, भाई, रागादि पर हैं और जो पर्याय में रागादि का ज्ञान है, वह मेरा है; ऐसा भेदज्ञान रूप अनुभव तब होता है, जबकि रागादि का लक्ष्य छोड़कर अपने लक्ष्य में आवे, तब ही इसकी परिणति में भेदज्ञान होता है । शरीर, मन, वाणी, इत्यादि नोकर्म और रागादि भावकर्म - ये सब पर- पुद्गल के ही हैं, पुद्गल ही हैं; और इन ज्ञेयों को जाननेवाला ज्ञान मेरा है, ज्ञायक का है - ऐसी भिन्नता जानकर एक ज्ञायक सत्ता में ही जो लक्ष्य करे, उसे भेदज्ञान होता है । " २ पृष्ठ ३२५ पृष्ठ ३२८
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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