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________________ 241 कलश २१ इसप्रकार बात अत्यन्त स्पष्ट है और आगे भी इसी विषय पर मंथन चलनेवाला है। अत: यहाँ अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है। अब इसी अर्थ का सूचक कलशकाव्य कहते हैं : ( मालिनी ) कथमपि हि लभंते भेदविज्ञानमूला मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा। प्रतिफलननिमग्नानंतभावस्वभावै Mकुरवदविकाराः संततं स्युस्त एव॥२१॥ (रोला) जैसे भी हो स्वतः अन्य के उपदेशों से। भेदज्ञान मूलक अविचल अनुभूति हुई हो। ज्ञेयों के अगणित प्रतिबिम्बों से वे ज्ञानी। अरे निरन्तर दर्पणवत् रहते अविकारी॥२१॥ जो पुरुष अपने आप ही अथवा पर के उपदेश से किसी भी प्रकार से भेदविज्ञान है मूल जिसका, ऐसी अपने आत्मा की अविचल अनुभूति प्राप्त करते हैं; वे पुरुष ही दर्पण की भांति अपने में प्रतिबिम्बित हुए अनन्तभावों के स्वभावों से निरन्तर विकाररहित होते हैं; ज्ञान में जो ज्ञेयों के आकार प्रतिभासित होते हैं, उनसे रागादि विकार को प्राप्त नहीं होते। उक्त कलश में मूलत: तो टीका की बात को ही कहा है, फिर भी इसमें दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात तो यह है कि अनुभूति को भेदज्ञानमूलक कहा है और दूसरी यह कि आत्मा के ज्ञानदर्पण में अनन्तपदार्थ झलकें, पर उससे ज्ञानी आत्मविकार को प्राप्त नहीं होते। जिसप्रकार अग्नि के प्रतिबिम्बित होने से दर्पण गर्म नहीं होता, उसीप्रकार रागादि के ज्ञेय बनने से आत्मा रागादिरूप परिणमित नहीं होता।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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