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________________ 254 समयसार अनुशीलन गाथा और आत्मख्याति टीका का भाव स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - "यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्य को अपना मानता है। यहाँ उसे उपदेश देकर सावधान किया है कि जड़ और चेतन द्रव्य - दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं; कभी भी किसी भी प्रकार से एक नहीं होते - ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने देखा है। इसलिए हे अज्ञानी ! तू परद्रव्य को एकरूप मानना छोड़ दे; व्यर्थ की मान्यता से बसकर।" आचार्य जयसेन भी इन तीनों गाथाओं के शब्दार्थ को स्पष्ट करने के उपरान्त निष्कर्ष के रूप में कहते हैं - "जिसप्रकार बरसात में नमक जलरूप हो जाता है और गर्मियों में वही जल फिर नमकरूप हो जाता है; उसीप्रकार यदि जीव चेतनता छोड़कर पुद्गलद्रव्यरूप हो जावे और पुद्गल मूर्तपने को छोड़कर चेतनरूप हो जावे तो तेरा कहना सत्य हो सकता है कि पुद्गलद्रव्य मेरा है। किन्तु हे दुरात्मन् ! ऐसा कभी होता नहीं है; क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष ही विरोध भासित होता है अर्थात् प्रत्यक्षप्रमाण से ही विरोध आता है। हम तो स्पष्ट देख रहे हैं कि शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाववाला अमूर्तजीव इस जड़ देह से एकदम भिन्न ही है।" गाथा की भावना को आत्मसात करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में अनेक उदाहरणों से गाथा के मर्म को खोलते हुए कहते हैं - "जिसप्रकार स्फटिक पाषाण में अनेक प्रकार के रंगों की निकटता के कारण अनेकरूपता दिखाई देती है, स्फटिक का निर्मलस्वभाव दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार एक ही साथ अनेकप्रकार की बंधन की उपाधि की अतिनिकटता से वेगपूर्वक बहते हुए अस्वभावभावों के संयोगवश अपने स्वभावभाव के तिरोभूत हो जाने से, जिसकी
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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