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________________ 287 गाथा ३१ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यह तो भगवान आत्मा के निर्विकल्प अनुभव की बात है ; इसमें तीर्थंकर भगवान की स्तुति कैसे हो गई ? तीर्थंकर भगवान के आत्माश्रित गुणों के माध्यम से उनके स्तवन करने का निश्चय स्तुति कहना चाहिए। जैसा कि समयसार में ही कहा गया है - तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो। केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि॥२९॥ ( हरिगीत ) परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन। केवलिगुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन॥२९ ।। उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि यदि आत्मा के गुणों के आधार पर वचनात्मक स्तुति करते तो वह गुणभेद के आधार पर की गई होने से व्यवहार स्तुति ही कहलाती । शरीर के गुणों के आधार पर की गई स्तुति असद्भूतव्यवहारनयोपजनित स्तुति है और आत्मा के गुणों के कथनपूर्वक की गई स्तुति सद्भूतव्यवहारनयोपजनित स्तुति होती। वहाँ असद्भूतव्यवहारनय के विरुद्ध सद्भूतव्यवहारनय खड़ा होता, निश्चयनय नहीं। यहाँ व्यवहार के विरुद्ध निश्चयनय खड़ा करना था; अतः निर्विकल्प-अनुभूति को निश्चय स्तुति कहा गया। प्रश्न -यह तो ठीक, पर इसे अपने आत्मा की स्तुति तो कह सकते हैं, पर तीर्थंकर भगवान की स्तुति कैसे कह सकते हैं? उत्तर -आपकी बात तो ठीक है, पर भगवान की आज्ञा भी तो यही है कि तुम आत्मा का अनुभव करो, आत्मा में ही समा जावो; स्वयं पर्याय में भी परमात्मा बन जावो। अत: यह आत्मानुभूति भी उनकी ही आज्ञा का पालन हुआ। सच्ची भक्ति तो आज्ञा का पालन ही है। हम भगवान की आज्ञा का पालन तो नहीं करें और कोरे गुणानुवाद करें तो उसे सच्ची भक्ति कैसे कहा जा सकता है? अत: निज भगवान आत्मा का अनुभव ही सच्ची निश्चयस्तुति है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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