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________________ 465 गाथा ६८ ये २९ प्रकार के भाव निश्चय से जीव नहीं हैं। यदि इन्हें आगम या परमागम में कहीं जीव कहा है तो वह घी के घड़े की भाँति व्यवहारकथन है। यह बात ६७वीं गाथा में स्पष्ट की गई है। ___ आत्मख्याति में ६८वीं गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया "जिसप्रकार जौपूर्वक जौ ही होते हैं; उसीप्रकार पुद्गल पुद्गलपूर्वक ही होते हैं, अचेतन अचेतनपूर्वक ही होते हैं। – इस नियम के अनुसार मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान पौद्गलिक अचेतन मोहकर्म की प्रकृति के उदयपूर्वक होने से सदा पुद्गल ही हैं, अचेतन ही हैं; चेतन नहीं हैं, जीव नहीं हैं। गुणस्थानों का नित्य-अचेतनत्व आगम से सिद्ध है और वे गुणस्थान भेदज्ञानियों को चैतन्यस्वभावी आत्मा से सदा ही भिन्न उपलब्ध हैं; इसलिए भी उनका सदा अचेतनत्व सिद्ध होता है। इसीप्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान और संयमलब्धिस्थान भी पुद्गलकर्मपूर्वक होते होने से, इसकारण सदा ही अचेतन होने से पुद्गल ही हैं, जीव नहीं। ऐसा स्वतः सिद्ध हो गया। इससे यह सिद्ध हुआ कि रागादिभाव जीव नहीं हैं।" इसी बात को जयचंदजी छावड़ा ने भावार्थ में सरल-सुबोध भाषा में इसप्रकार व्यक्त किया है - "शुद्धद्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में चैतन्य अभेद है और उसके परिणाम भी स्वाभाविक ज्ञान-दर्शन हैं। परनिमित्त से होनेवाले चैतन्य के विकार, यद्यपि चैतन्य जैसे दिखाई देते हैं; तथापि चैतन्य की सर्व अवस्थाओं में व्यापक न होने से चैतन्य शून्य हैं, जड़ हैं और आगम
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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