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________________ समयसार अनुशीलन दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं । वंद्यास्तेऽष्टसहस्त्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ॥ २४ ॥ ( हरिगीत ) लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से । जो हरे निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से ॥ जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें I उन सहसअठ लक्षणसहित जिनसूरि को वन्दन करें ॥ २४ ॥ 266 वे तीर्थंकर और आचार्यदेव वन्दना करने योग्य हैं जो कि अपने शरीर की कान्ति से दशों दिशाओं को धोते हैं, निर्मल करते हैं; अपने तेज से उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादिक को भी ढक देते हैं; अपने रूप से जन-जन के मन को मोह लेते हैं, हर लेते हैं; अपनी दिव्यध्वनि से भव्यजीवों के कानों में साक्षात् सुखामृत की वर्षा करते हैं तथा एक हजार आठ लक्षणों को धारण करते हैं । उक्त छन्द में लगभग सभी विशेषण तीर्थंकर अरहंत देव की मुख्यता से ही आये हैं, तथापि 'सूरयः' शब्द से आचार्य भगवन्तों को भी ग्रहण कर लिया गया है । मूल गाथा में भी 'आयरिय' शब्द हैं; किन्तु कलश में जो विशेषण दिये हैं, वे आचार्यों पर घटित नहीं होते हैं । इसीकारण कलश टीकाकार पाण्डे राजमलजी ने 'सूरयः' शब्द को तीर्थंकर अरहंतों का ही विशेषण मानकर उसका अर्थ मोक्षमार्ग के उपदेष्टा किया है। चूंकि नाटक समयसार कलशटीका को आधार बनाकर लिखा गया है; अत: उसमें भी तीर्थंकरों को ही आधार बनाया गया है । नाटक समयसार का छन्द मूलतः इसप्रकार है ( सवैया इकतीसा ) जाकी देहति सौं दसौं दिसा पवित्र भई, जाके तेज आगे सब तेजवन्त रुके हैं। जाकौ रूप निरखि थकित महारूपवन्त, जाकी वपुवास सौं सुवास और लुके हैं ॥ -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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