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________________ 327 कलश ३० अपने अतीन्द्रिय आनन्द के रस से भरा हुआ हूँ। मैं तो अपने में ही अपनापन अनुभव करता हूँ, इन मोहादि में मेरा रंचमात्र भी अपनापन नहीं है। कलश में तो 'चिद्घन' शब्द ही है, पर इसका विस्तार इसप्रकार किया जा सकता है कि मैं ज्ञानघन हूँ, दर्शनघन हूँ, आनंदघन हूँ, शक्तिघन हूँ। इसीप्रकार और भी अनेक गुणों का घनपिण्ड मैं हूँ; क्योंकि मैं तो अनन्तगुणों का घनपिण्ड हूँ और मोहादि विकारीभाव और शरीरादि परपदार्थ मेरे में रंचमात्र भी नहीं हैं। - ऐसी भावना तबतक भाना, जबतक कि इस चिद्घन आत्मा का अनुभव न हो जाय, हमारा उपयोग भी चिद्घनमय न हो जाय। बन्धन क्या है ? बन्धन तभी तक बन्धन है, जबतक बन्धन की अनुभूति है। यद्यपि पर्याय में बन्धन है, तथापि आत्मा तो अबन्धस्वभावी ही है। अनादिकाल से यह अज्ञानी प्राणी अबन्धस्वभावी आत्मा को भूलकर बन्धन पर केन्द्रित हो रहा है । वस्तुत: बन्धन की अनुभूति ही बन्धन है। वास्तव में मैं बँधा हूँ' – इस विकल्प से यह जीव बँधा है। ____ लौकिक बन्धन से विकल्प का बन्धन अधिक मजबूत है, विकल्प का बन्धन टूट जावे तथा अबन्ध की अनुभूति सघन हो जावे तो बाह्यबन्धन भी सहज टूट जाते हैं। __ बन्धन के विकल्प से, स्मरण से, मनन से दीनता-हीनता का विकास होता है। अबन्ध की अनुभूति से, मनन से, चिन्तन से शौर्य का विकास होता है; पुरुषार्थ सहज जागृत होता है। पुरुषार्थ की जागृति में बन्धन कहाँ ? – तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ५७
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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