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________________ ४८५ गाथा पद्यानुवाद चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा। तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं ।।१३।। अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को। संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें॥१४|| अबद्धपुट्ठ अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को। अपदेश एवं शान्त वह सम्पूर्ण जिनशासन लहे ।।१५।। चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा । ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा॥१६।। 'यह नृपति है' - यह जानकर अथार्थिजन श्रद्धा करें। अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें॥१७॥ यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए। अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहिचानिए॥१८॥ मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी। यह मान्यता जबतक रहे अज्ञानि हैं तबतक सभी॥१९॥ सचित्त और अचित्त एवं मिश्र सब पर द्रव्य ये। हैं मेरे ये मैं इनका हूँ ये मैं हूँ या मैं हूँ वे ही॥२०॥ हम थे सभी के या हमारे थे सभी गत काल में। हम होंयगे उनके हमारे वे अनागत काल में ॥२१।। ऐसी असंभव कल्पनाएँ मूढजन नित ही करें। भूतार्थ जाननहार जन ऐसे विकल्प नहीं करें ।।२२।। अज्ञान-मोहित-मती बहुविध भाव से संयुक्त जिय। अबद्ध एवं बद्ध पुद्गल द्रव्य को अपना कहें ।।२३।। सर्वज्ञ ने देखा सदा उपयोग लक्षण जीव यह । पुद्गलमयी हो किसतरह किसतरह तू अपना कहे ?॥२४।। जीवमय पुद्गल तथा पुद्गलमयी हो जीव जब । ये मेरे पुद्गल द्रव्य हैं - यह कहा जा सकता है तब ।।२५।। यदि देह ना हो जीव तो तीर्थंकरों का स्तवन । सब असत् होगा इसलिए बस देह ही है आतमा॥२६।।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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