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________________ 145 गाथा १३ एक प्रकरण समाप्त होने पर सर्वत्र यह कह दिया गया है कि इसीप्रकार भोक्ता-भोग्य के संबंध में भी समझना चाहिए। इसप्रकार इस अधिकार में मुख्यरूप से कर्ता-कर्म और गौणरूप से भोक्ता-भोग्य की बात की है। अत: उक्त नाम उचित ही है। प्रश्न - तत्त्वार्थसूत्र में जीवादितत्त्वार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है और तत्त्वार्थ सात बताये गये हैं तथा उनके अधिगम के उपाय के रूप में प्रमाण और नयों को प्रस्तुत किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नयों से जाने हुए जीवादि सप्त तत्त्वार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है और यहाँ इस तेरहवीं गाथा में भूतार्थनय से जाने हुए जीवादि नवतत्त्वों को ही सम्यग्दर्शन कहा है। उक्त दोनों कथनों में यह मतभेद क्यों है? उत्तर - यह मतभेद नहीं, विवक्षाभेद है। यदि दोनों कथनों की विवक्षायें समझ ली जावें तो कोई आशंका नहीं रहेगी। तत्त्वार्थसूत्र का कथन सैद्धांतिक कथन है और समयसार का कथन आध्यात्मिक कथन है। तत्त्वार्थसूत्रकर्ता को सप्त तत्त्वार्थों का प्रमाण और नयों से गुण-पर्याय सहित, सर्वांग विवेचन अभीष्ट था, जैसा कि उन्होंने आगे किया भी है। जीवों के संसारी-सिद्ध सभी भेद बताये, उनके रहने के स्थानों की चर्चा की। अजीवादि तत्त्वों का भी इसीप्रकार विस्तृत विवेचन किया। आस्रव में सत्तावन प्रकार के आस्रव बताये, उनके शुभाशुभभेद करके व्रतों का वर्णन भी किया। बंधतत्त्व में कर्मों की प्रकृतियाँ गिनाईं, निर्जरा में भी उसके उपायों की विस्तृत समीक्षा की। पर समयसार में यह सब नहीं है, समयसार की प्रतिपादनशैली ही अलग है । समयसार में तो सभी तत्त्वों में प्रकाशमान आत्मज्योति को ही खोजा गया है। १. तत्त्वार्थसूत्र : अध्याय १, सूत्र २ २. वही, सूत्र ४ ३. वही, सूत्र ६
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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