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________________ 293 गाथा ३१ काया और आत्मा की भिन्नता की मूल बात के साथ-साथ इस गाथा में तीन बातें स्पष्ट हुई हैं; जो इसप्रकार हैं - (१) अपने आत्मा को शरीरपरिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रियों, क्षयोपशमज्ञानरूप भावेन्द्रियों एवं इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों से भिन्न जानकर उसे निजरूप अनुभव करना ही इन्द्रियों को जीतना है, जितेन्द्रियपना है। (२) द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय एवं इनके माध्यम से जाने जानेवाले पदार्थ ज्ञेय हैं और निज भगवान आत्मा ज्ञायक है। वह ज्ञायक भगवान आत्मा इन ज्ञेयों से भिन्न है - यह जानकर निज आत्मा में एकत्व का अनुभव करना ही ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष का परिहार है। (३) इसप्रकार की निर्विकल्प-आत्मानुभूति ही प्रथम प्रकार की निश्चय स्तुति है, जो सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा के ही होती है। इसप्रकार इस ३१वीं गाथा में ज्ञेय-ज्ञायक संकरदोष के परिहारपूर्वक होनेवाली जितेन्द्रियजिनरूप प्रथमप्रकार की निश्चयस्तुति का स्पष्टीकरण हुआ। पवित्रता प्राप्त करने का उपाय स्वभाव से तो सभी आत्माएँ परमपवित्र ही हैं, विकृति मात्र पर्याय में है। पर जब पर्याय परमपवित्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेती है, तो वह भी पवित्र हो जाती है। पर्याय के पवित्र होने का एकमात्र उपाय परमपवित्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेना है। 'पर' के आश्रय से पर्याय में अपवित्रता और 'स्व' के आश्रय से पवित्रता प्रकट होती है। - धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ ६८
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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