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कलश पद्यानुवाद वर्णादिक जो भाव हैं, वे सब पुद्गल जन्य। एक शुद्ध विज्ञानघन आतम इनसे भिन्न ।।३९।। कहने से घी का घड़ा, घड़ा न घीमय होय। कहने से वर्णादिमय जीव न तन्मय होय ॥४०॥ स्वानुभूति में जो प्रगट, अचल अनादि अनन्त । स्वयं जीव चैतन्यमय, जगमगात अत्यन्त ॥४१॥
(सवैया इकतीसा) मूर्तिक अमूर्तिक अजीव द्रव्य दो प्रकार,
इसलिए अमूर्तिक लक्षण न बन सके । सोचकर विचारकर भलीभांति ज्ञानियों ने,
कहा वह निर्दोष लक्षण जो बन सके। अतिव्याप्ति अव्याप्ति दोषों से विरहित,
चैतन्यमय उपयोग लक्षण है जीव का। अतः अवलम्ब लो अविलम्ब इसका ही, क्योंकि यह भाव ही है जीवन इस जीव का॥४२॥
(हरिगीत ) निज लक्षणों की भिन्नता से जीव और अजीव को। जब स्वयं से ही ज्ञानिजन भिन्न-भिन्न ही हैं जानते॥ जग में पड़े अज्ञानियों का अमर्यादित मोह यह। अरे तब भी नाचता क्यों खेद है आश्चर्य है ।।४३।। अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में। बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में। यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है। आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है।।४४।। जब इसतरह धाराप्रवाही ज्ञान का आरा चला। तब जीव और अजीव में अतिविकट विघटनहोचला। अब जबतलक हों भिन्न जीव-अजीव उसके पूर्व ही। यह ज्ञान का घनपिण्ड निज ज्ञायक प्रकाशित हो उठा॥४५॥