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________________ ४९४ समयसार अनुशीलन हे भव्यजन ! इस लोक के सब एकसाथ नहाइये। अर इसे ही अपनाइये इसमें मगन हो जाइये ।।३२।। (सवैया इकतीसा) जीव और अजीव के विवेक से है पुष्ट जो, ऐसी दृष्टि द्वारा इस नाटक को देखता। अन्य जो सभासद हैं उन्हें भी दिखाता और, दुष्ट अष्ट कर्मों के बंधन को तोड़ता।। जाने लोकालोक को पै निज में मगन रहे, विकसित शुद्ध नित्य निज अवलोकता। ऐसो ज्ञानवीर धीर मंग भरे मन में, स्वयं ही उदात्त और अनाकुल सुशोभता ।।३३।। (हरिगीत) हे भव्यजन! क्या लाभ है इस व्यर्थ के बकवाद से। अब तोरुको निज को लखोअध्यात्मके अभ्यास से। यदि अनवरत छहमास हो निज आतमा की साधना। तो आतमा की प्राप्ति हो सन्देह इसमें रंच ना॥३४॥ चैतन्यशक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर। चैतन्यशक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर॥ है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धात्मा। अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा॥३५॥ (दोहा) चित् शक्ति सर्वस्व जिन केवल वे हैं जीव। उन्हें छोड़कर और सब पुद्गलमयी अजीव ॥३६।। वर्णादिक रागादि सब हैं आतम से भिन्न । अन्तर्दृष्टि देखिये दिखे एक चैतन्य ॥३७।। जिस वस्तु से जो बने, वह हो वही न अन्य। स्वर्णम्यान तो स्वर्ण है, असि है उससे अन्य ।।३८।।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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