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गाथा १३
के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । इसलिए इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है।
इसप्रकार एकत्वरूप से प्रकाशित यह भगवान आत्मा शुद्धनय के रूप में अनुभव किया जाता है और यह अनुभूति आत्मख्याति ही है तथा यह आत्मख्याति सम्यग्दर्शन ही है। अत: भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन है – यह कथन पूर्णत: निर्दोष है।" __ यह तो सर्वविदित ही है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की संस्कृत भाषा में जो टीका लिखी है, उसका नाम उन्होंने 'आत्मख्याति' रखा है और सर्वप्रथम इस गाथा की टीका में 'आत्मख्याति' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ स्वयं उन्होंने आत्मानुभूति और सम्यग्दर्शन किया है।
आत्मख्याति का अर्थ होता है आत्मा की प्रसिद्धि। हमारा आत्मा दूसरों को जाने या दूसरे आत्मा हमें जानें – इसका नाम आत्मख्याति या आत्मप्रसिद्धि नहीं है; अपितु अपना आत्मा स्वयं को ही जाने, अनुभव करे; अपने में ही अपनापन स्थापित करे, अपने में ही रम जाय, जम जाय, समा जाय – यही सच्ची आत्मख्याति है। आत्मख्याति अर्थात् मोक्षमार्ग – अपनी समझ, अपनी पहिचान, अपने में ही सर्वस्व समर्पण।
यह आत्मख्याति, यह आत्मानुभूति भूतार्थनय के विषयभूत निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही प्रगट होती है और यही निश्चयसम्यग्दर्शन है।
कौन नय भूतार्थ है और कौन नहीं – यह बात ग्यारहवीं गाथा में विस्तार से स्पष्ट की जा चुकी है। अत: भूतार्थनय की व्याख्या करना यहाँ आवश्यक नहीं है।
प्रश्न - ग्यारहवीं गाथा के निष्कर्ष में तो एक परमशुद्धनिश्चयनय को ही भूतार्थ कहा है और उसका विषय तो परमपारिणामिकभावरूप