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________________ 311 गाथा ३४-३५ इन गाथाओं में प्रत्याख्यान का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट किया गया है। प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग होता है। वास्तविक त्याग तो परपदार्थों को 'पर' जानना ही है। जब हमने यह जान लिया कि ये पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, पर हैं तो उनका त्याग हो ही गया; क्योंकि त्याग करने के लिए यह जानने के अतिरिक्त और क्या करना है? प्रश्न – क्या उन्हें छोड़ना नहीं पड़ेगा? । उत्तर -जब उनका ग्रहण ही नहीं हुआ है तो फिर छोड़ने का प्रश्न ही कहाँ खड़ा होता है। उन्हें तो मात्र अपना जाना गया था, उनका ग्रहण तो संभव ही नहीं है ; क्योंकि आत्मा में एक 'त्यागोपादानशून्यत्व' नाम की शक्ति है; जिसके कारण यह भगवान आत्मा पर के ग्रहणत्याग से शून्य है। यह शक्ति बताती है कि आत्मा में ऐसा कोई स्वभाव ही नहीं है कि जिसके कारण वह परपदार्थों का ग्रहण और त्याग करे। आजतक इस आत्मा ने किसी परपदार्थ का ग्रहण किया ही नहीं है तो फिर त्याग भी किसका करे ? इसने तो अपने अज्ञान से पर को मात्र अपना जाना था, माना था। इसके इस जानने-मानने के कारण यह तो अज्ञानी हो गया, मिथ्यादृष्टि हो गया; पर कोई पदार्थ इसका हुआ नहीं, हो सकता नहीं। अत: पर के त्याग की कोई समस्या नहीं है; मात्र जिन पदार्थों को अज्ञान से अपना जाना-माना है; उन्हें अपना जाननामानना ही छोड़ना है, यही पर का त्याग है; इसकारण प्रत्याख्यान भी ज्ञान ही है, इससे अन्य कुछ नहीं। पर को अपना जानना-मानना त्यागना ही सच्चा त्याग है, प्रत्याख्यान है । यही बताना इन गाथाओं का मूल प्रतिपाद्य है। इन गाथाओं के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गाया "यह ज्ञाता-दृष्टा भगवान आत्मा अन्यद्रव्यों के स्वभाव से होनेवाले अन्य समस्त परभावों को, अपने स्वभावभाव से व्याप्त न होने के कारण
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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