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________________ 469 कलश ४१ इस कलश का पद्यानुवाद समयसार नाटक में इसप्रकार दिया गया है - ( दोहा ) निराबाध चेतन अलख जाने सहज स्वकीव। अचल अनादि अनंत नित प्रगट जगत में जीव ।। इन्द्रियों से दिखाई नहीं देने वाला यह अलख चेतन आत्मा निराबाध है, अचल है, अनादि है, अनंत है, नित्य है और सहजभाव से स्वयं से ही जानने योग्य है - यह बात जगत प्रसिद्ध ही है। उपर्युक्त २९ भावों से रहित यह भगवान आत्मा अनादि है, अनन्त है, अचल है । न तो कभी इसका आरंभ हुआ है और न कभी अन्त ही होनेवाला है। यह जन्म-मरण से रहित है, क्योंकि लोक में जन्म आदि का और मरण अन्त का सूचक है। जब यह आत्मा अनादिअनन्त है तो इसके जन्म-मरण कैसे हो सकते हैं? इसे किसी ने बनाया भी नहीं है और न इसका कोई नाश ही कर सकता है; क्योंकि यह अनादि-अनन्त-अचल तत्त्व है। ___ अपने स्वभाव में अटलरूप से स्थित होने से यह अचल है। किसी भी स्थिति में यह अपने ज्ञानानन्दस्वभाव से चलायमान नहीं होता। अतः अपने में पूर्ण सुरक्षित है। इसे अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। इसका निर्माणकर्ता, विनाशकर्ता और रक्षणकर्ता कोई नहीं है; क्योंकि यह स्वयं अनादि-अनन्त और अचलतत्त्व है। यह ज्ञानदर्शनस्वभावी होने से चैतन्य है; अपने चैतन्यस्वभाव से सदा प्रगट है और यह स्वयं जगमगाती हुई जलहलज्योति है, प्रकाशमान ज्योति है। यह कोई छुपा हुआ पदार्थ नहीं है, अपितु यह प्रकाशमान जलहलज्योति, सूर्य के समान स्वयं प्रकाशित हो रही है और जगत को प्रकाशित करने में भी पूर्ण समर्थ है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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