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________________ समयसार अनुशीलन 448 अतिरिक्त कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य नहीं रहा। और मोक्ष होने पर भी उन पुद्गलों का ही मोक्ष हुआ; इसलिये मोक्ष में भी पुद्गल ही जीव ठहरे, अन्य कोई चैतन्यरूप जीव नहीं रहा। इसप्रकार संसार तथा मोक्ष में पुद्गल से भिन्न ऐसा कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य न रहने से जीव का ही अभाव हो गया। इसलिये मात्र संसार-अवस्था में ही वर्णादि भाव जीव के हैं - ऐसा मानने से भी जीव का अभाव ही होता है।" जयचन्दजी छाबड़ा के उक्त भावार्थ में आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति टीका का पूरा भाव आ गया है। अब जो थोड़ी-बहुत अस्पष्टता रह जाती है, वह स्वामीजी के निम्नांकित कथन से स्पष्ट हो जाती है - "जो निश्चय से सभी अवस्थाओं में स्वरूपपने से व्याप्त हो तथा उस स्वरूपपने की व्याप्ति से रहित नहीं हो, उनका तादात्म्यलक्षण संबंध होता है। जिसप्रकार ज्ञान के साथ आत्मा का तादात्म्यलक्षणसंबंध है; क्योंकि आत्मा की सर्व अवस्थाओं में वह ज्ञान स्वरूपपने व्याप्त रहता है और आत्मा कभी भी ज्ञानस्वरूपपने की व्याप्ति से रहित नहीं होता। रागादिरूप उदयभाव के साथ आत्मा का तादात्म्यलक्षण संबंध नहीं है; क्योंकि आत्मा सर्व अवस्थाओं में उदयभाव के साथ व्याप्त नहीं रहता। संसार अवस्था में तो उदयभाव है, परन्तु मोक्ष अवस्था में नहीं है।' पुद्गल की सभी अवस्थाओं में वे वर्णादिभाव व्याप्त रहते हैं तथा पुद्गल उन वर्णादि की व्याप्ति से कभी भी रहित नहीं होता; इसलिए वर्णादिभावों का पुद्गल के साथ तादात्म्यसंबंध है, किन्तु आत्मा के साथ नहीं है। . वे वर्णादि व रागादि आत्मा के साथ संसार-अवस्था में कथंचित् व्याप्त रहते हैं; तथापि मोक्ष अवस्था में उनकी व्याप्ति बिल्कुल नहीं है। इसलिए उनका जीव के साथ तादात्म्यलक्षणसंबंध नहीं है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३२३ २. वही, पृष्ठ ३२४
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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