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________________ 155 कलश ८ जो भेदबुद्धि करते हुए जीववस्तु चेतना लक्षण से जीव को जानती है, वस्तु विचारने पर इतना विकल्प भी झूठा है, शुद्धवस्तु मात्र है । ऐसा अनुभव सम्यकत्व है।" उक्त कथन में संयोग, संयोगीभाव, द्रव्य-गुण-पर्याय एवं उत्पादव्यय-ध्रौव्य के भेद तथा लक्ष्य-लक्षण भेद सभी को व्यवहारनय से सत्यार्थ बताकर भी यह स्पष्ट किया गया है कि शुद्धनय से, भूतार्थनय से ये सभी असत्यार्थ हैं ; इन सबसे भिन्न शुद्ध जीववस्तु मात्र ही सत्यार्थ है और उसके आश्रय से ही अनुभव होता है, सम्यक्त्व होता है । कलशटीका में 'उन्नीयमान' का अर्थ अनुमानगोचर और 'उद्योतमान' का अर्थ प्रत्यक्षज्ञानगोचर तथा 'विविक्त' का अर्थ नौ तत्त्वों के विकल्प से रहित किया है; जो विशेष ध्यान देने योग्य है। तात्पर्य यह है कि जीववस्तु चेतनालक्षण से जानी जाती है – इसकारण अनुमानगोचर है और अनुभवज्ञान का विषय बनती है – इसलिए प्रत्यक्षज्ञानगोचर है। तेरहवीं गाथा की आत्मख्याति टीका में समागत आठवें कलश के उपरान्त जो टीका लिखी गई है, उसमें मूलरूप से तो यही बताना अभीष्ट है कि भूतार्थनय के अतिरिक्त जो नय और प्रमाण व निक्षेप हैं; वे भी उसीप्रकार अभूतार्थ हैं, जिसप्रकार उनके द्वारा जाने गये नवपदार्थ; फिर भी यहाँ संक्षेप में प्रमाण, नय और निक्षेप का स्वरूप भी स्पष्ट कर दिया है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ नयों के भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के रूप में लिए गए हैं। __इन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का स्वरूप यदि विस्तार से जानने की जिज्ञासा हो तो लेखक की अन्य कृति "परमभावप्रकाशक नयचक्र" के तृतीय अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। वहाँ इन नयों पर ४८ पृष्ठों में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि जिनागम का मर्म समझने के लिए इनका समझना अत्यन्त आवश्यक है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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