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________________ समयसार गाथा १३ आचार्य जयसेन के अनुसार संक्षिप्त रुचिवाले आसन्नभव्य जीवों के लिए तो समयसार की पीठिकारूप आरंभ की १२ गाथाएं ही पर्याप्त हैं; क्योंकि वे तो इतने से ही हेयोपादेय तत्त्वों को जानकर अपने विशुद्ध ज्ञान- दर्शनस्वभाव की भावना भाने में समर्थ होते हैं । अतः संक्षिप्त रुचिवालों के लिए तो समयसार यहीं समाप्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे संक्षेप में तो वे कह ही चुके हैं । समयसार का मूल प्रतिपाद्य जो दृष्टि का विषय है, उसका स्पष्टीकरण तो छठवीं-सातवीं गाथा में आ ही गया है । आठवीं से बारहवीं गाथा तक निश्चय - व्यवहार का स्वरूप, उनकी उपयोगिता तथा उनकी भूतार्थता - अभूतार्थता भी बता दी गई है। छठवीं-सातवीं गाथा में प्रतिपादित आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति होती है। अतः सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र की एकतारूप मोक्षमार्ग का मूल आधार तो स्पष्ट हो ही गया है । उसे जानकर, उसमें अपनापन स्थापित करके; उसमें ही जमकर रमकर, मोक्षमार्ग में आरूढ़ होकर मुक्ति प्राप्त की जा सकती है । अतः तीक्ष्ण प्रज्ञा के धनी, संक्षिप्त रुचिवाले आसन्नभव्य जीवों का काम तो हो ही गया है। अब तो विस्तार रुचिवाले सर्व सामान्यजनों को समझाने के लिए नवतत्त्वों का आध्यात्मिक स्वरूप समझाने की पावन भावना से विस्तारपूर्वक कथन आरंभ किया जाता है । उसमें सर्वप्रथम इस तेरहवीं गाथा में यह बताते हैं कि भूतार्थनय से जाने हुए जीवादि नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं । मूल गाथा इसप्रकार है
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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