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________________ 379 गाथा ४४ उत्तर -अरे, भाई! आचार्यदेव ने तो भेदज्ञानियों के अनुभव को आधार बनाया है और साथ में सर्वज्ञभगवान की भी साक्षी दी है, आगम को आधार बनाया है। क्या अज्ञानियों के अनुभव और भेदज्ञानियों के अनुभव को एक श्रेणी में रखा जा सकता है? इसीप्रकार क्या सर्वज्ञकथित आगम की उपेक्षा की जा सकती है ? _ दूसरी बात यह है कि 'दिखाई नहीं देनेवाली' युक्ति से 'दिखाई देनेवाली' युक्ति अधिक प्रवल होती है; क्योंकि ऐसा तो संभव है कि कोई वस्तु हो और वह हमें दिखाई न दे, पर ऐसा संभव नहीं होता कि कोई वस्तु न हो और वह दिखाई दे जावे। ___ अत: अब तो आपको ही निर्णय करना है कि सर्वज्ञ की वाणीरूप आगम और भेदज्ञानियों के अनुभव को प्रमाण मानना कि अन्य अज्ञानियों के अनुभव को प्रमाण मानना। प्रश्न – ये आठ प्रकार की मान्यतायें तो अन्य मतवालों की हैं। वे लोग न आपके सर्वज्ञकथित आगम को ही मानते हैं और न आपके द्वारा माने गये भेदज्ञानियों के अनुभव को ही स्वीकार करते हैं। अत: उनके सामने अपने आगम और भेदज्ञानियों के अनुभव की दुहाई देने से क्या लाभ है? उत्तर - अरे, भाई! यह बात तो हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि मतार्थ की दृष्टि से भले ही इस कथन से अन्यमतकल्पित मान्यताओं का खण्डन हो जाता है; पर आचार्यदेव ने यह कथन किसी अन्य मत के खण्डन के लिए नहीं किया है ; उनका मूल उद्देश्य तो अपने शिष्यों में पाई जाने वाली इसप्रकार की भूलों का परिमार्जन करना ही रहा है। यही कारण है कि वे सर्वज्ञकथित आगम और भेदज्ञानियों के अनुभव से गर्भित युक्ति का सहारा लेते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि ये शिष्यगण सर्वज्ञकथित आगम को भी प्रमाण मानते हैं और इन्हें
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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