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________________ 115 गाथा ११ भी पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में निश्चयनय को भूतार्थ कहा है। चूंकि अशुद्धनिश्चयनय निश्चयनय का ही एक भेद है; अत: उसे भूतार्थ कहना ही ठीक लगता है। उत्तर – नहीं, यह ठीक नहीं है; क्योंकि मूल गाथा में जब शुद्धनय शब्द है तो उसमें अशुद्धनय को कैसे शामिल किया जा सकता है। दूसरे बृहद्रव्यसंग्रह की गाथा ४८ की टीका में आता है कि 'स चाशुद्धनिश्चयः शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव - और वह अशुद्धनिश्चयनय शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार ही है।' उक्त कथन के आधार पर अशुद्धनिश्चयनय व्यवहार होने से अभूतार्थ ही है, भूतार्थ नहीं। परमशुद्धनिश्चयनय को छोड़कर निश्चयनय के शेष भेद किसप्रकार व्यवहारपने को प्राप्त होकर अभूतार्थ हो जाते हैं - इस पर विस्तार से विचार करते हुए परमभावप्रकाशक नयचक्र में जो लिखा गया है, वह इसप्रकार है - "बात यहाँ तक ही समाप्त नहीं होती; क्योंकि जब शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से अशुद्धनिश्चयनय व्यवहार हो जाता है, तो शुद्धनिश्चय के प्रभेदों में भी ऐसा क्यों नहीं हो ?' अर्थात् होता ही है। परमशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा साक्षात्शुद्धनिश्चयनय एवं एकदेशसुद्धनिश्चयनय भी व्यवहार ही कहे जाते हैं। 'न तथा' शब्द से सबका निषेध करनेवाला परमशुद्धनिश्चयनय कभी भी किसी भी नय द्वारा निषिद्ध नहीं होता, अत: वह कभी भी व्यवहारपने को प्राप्त नहीं होता; किन्तु वह सबका निषेध करके स्वयं निवृत्त हो जाता है और निर्विकल्प आत्मानुभूति का उदय होता है। वास्तव में यह आत्मानुभूति की प्राप्ति ही इस सम्पूर्ण प्रक्रिया का फल है।" १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ८२ २. वही, पृष्ठ ९७
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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