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________________ 381 कलश ३४ आत्मानुभव की प्रेरणा देनेवाला वह कलश मूलत: इसप्रकार है ( मालिनी ) विरम किमपरेणाकार्य कोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः ॥ ३४ ॥ ( हरिगीत ) हे भव्यजन ! क्या लाभ है इस व्यर्थ के बकवाद से । अब तो रुको निज को लखो अध्यात्म के अभ्यास से ॥ यदि अनवरत छहमास हो निज आतमा की साधना । तो आतमा की प्राप्ति हो सन्देह इसमें रंच ना ॥ ३४॥ हे भव्य ! हे भाई !! अन्य व्यर्थ के कोलाहल करने से क्या लाभ है ? अत: हे भाई! तू इस अकार्य कोलाहल से विराम ले, इसे बन्द करदे और जगत से निवृत्त होकर एक चैतन्यमात्र वस्तु को निश्चल होकर देख । ऐसा छहमास तक करके तो देख । तुझे अपने ही हृदय सरोवर में पुद्गल से भिन्न तेजवंत प्रकाशपुंज भगवान आत्मा की प्राप्ति होती है या नहीं? तात्पर्य यह है कि ऐसा करने से तुझे भगवान आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी । 1 - समयसार नाटक में कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने उक्त छन्द के भाव को बड़े ही मार्मिक एवं प्रेरणास्पद शब्दों में प्रस्तुत किया है, जो इसप्रकार है ― ( सवैया इकतीसा ) " 'भैया जगवासी तू उदासी ह्वैकैं जगत सौं, एक छ महीना उपदेश मेरौ मानु रे । और संकलप विकलप के विकार तजि, बैठिकैं एकन्त मन एक ठौरु आनु रे ॥ तेरौ घट सर तामैं तू ही है कमल ताकौ, तू ही मधुकर ह्वै सुवास पहिचानु रे ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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