SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन 438 इसीप्रकार जीव में कर्मों और नोकर्मों का वर्ण देखकर जिनेन्द्र भगवान व्यवहार से ऐसा कहते हैं कि यह वर्ण जीव का है। जिसप्रकार वर्ण के बारे में कहा गया है ; उसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, देह, संस्थान आदि के बारे में भी समझना चाहिए कि ये सब भाव भी व्यवहार से ही जीव के हैं - ऐसा निश्चयनय के देखनेवाले या निश्चयनय के जानकार कहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसप्रकार मार्ग में जाते हुए किसी संघ को लुटता देखकर, मार्ग में संघ की स्थिति होने से, उसका उपचार करके व्यवहारीजन यद्यपि ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है; तथापि निश्चय से देखा जाये तो आकाश के अमुक भागस्वरूप मार्ग कभी भी नहीं लुटता; क्योंकि उसका लुटना संभव ही नहीं है। इसीप्रकार जीव में बंधपर्यायरूप से अवस्थित कर्म और नोकर्म का वर्ण देखकर, कर्म और नोकर्म की जीव में स्थिति होने से उसका उपचार करके यद्यपि अरिहंतदेव भी व्यवहार से ऐसा कहते हैं कि जीव का यह वर्ण है; तथापि उपयोग गुण द्वारा अन्य द्रव्यों से अधिक होने से, भिन्न होने से अमूर्तस्वभावी जीव का निश्चय से कोई भी वर्ण नहीं है, रंग नहीं है। जिसप्रकार वर्ण के बारे में, रंग के बारे में समझा है; उसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान के बारे में भी समझ लेना चाहिए; क्योंकि इन सभी को अरिहंत भगवान व्यवहार से जीव के कहते हैं ; तथापि उपयोग गुण द्वारा
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy