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________________ 365 कलश ३३ वीरता और धीरता के साथ जब उदारता भी होती है तो फिर सोने में सुगंधी जैसी बात हो जाती है । इस समयसार नाटक का नायक ज्ञान धीर है, वीर है, अनाकुल है और उदार भी है; अतः सर्वश्रेष्ठ है, धीरोदात्त है । न केवल इसी अधिकार में, अपितु प्रत्येक अधिकार के आरम्भ में आत्मख्यातिकार अमृतचन्द्र ने धीर-वीर ज्ञान की महिमा गा कर ही मंगलाचरण किया है । अन्तर मात्र इतना ही होगा कि यहाँ जीवाजीवाधिकार होने से जीव और अजीव में भेद बतानेवाले ज्ञान को स्मरण किया गया है तो अन्य अधिकारों में तत्संबंधी अज्ञान का नाश करनेवाले ज्ञान को स्मरण किया जायगा । ज्ञान तो वही है, मात्र विशेषणों का अन्तर पड़ेगा । 1 कविवर पंडित बनारसीदासजी समयसार नाटक में मंगलचारण के रूप इस छन्द का भावानुवाद इसप्रकार करते हैं ( सवैया इकतीसा ) — "परम प्रतीति उपजाय गनधर की सी, अंतर - अनादि की विभावता विदारी है । भेदग्यान दृष्टि सौं विवेक की सकति साधि, चेतन-अचेतन की दसा निरवारी है ॥ करम कौ नास करि अनुभौ अभ्यास धरि, हिय मैं हरखि निज सुद्धता संभारी है। अन्तराय नास भयो सुद्ध परकास भयो, ग्यान कौ विलास ताकौं वंदना हमारी है ॥ जिस ज्ञान के विलास ने, उल्लास ने, परिणमन ने; गणधरदेव के समान उत्कृष्ट श्रद्धान उत्पन्न करके अनादिकालीन आन्तरिक विभावभाव को विदीर्ण किया है, मिथ्यात्व का नाश किया है; भेदज्ञान की दृष्टि से विवेक की शक्ति को साधकर चेतन और अचेतन में हुई अनादिकालीन
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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