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________________ 457 गाथा ६७ "ज्यौं घट कहिये घीव को घट कौ रूप न घीव । त्यौं वरनादिक नाम सौं जड़ता लहै न जीव॥" यद्यपि 'घी का घड़ा' कहा जाता है; तथापि घट घीरूप कभी नहीं होता; इसीप्रकार जीव वर्णादिवाला कहा जाता है; तथापि वह जड़ नहीं हो जाता। __ पुराने जमाने में घी भी मिट्टी के घड़ों में ही रखा जाता था। इसके लिए घड़े को विशेष रूप से तैयार किया जाता था। मिट्टी का होने से वह स्वयं बहुत घी सोख लेता था। अत: कीमती भी हो जाता था। उसमें पहले कुछ दिन पानी भरा जाता था। उसके बाद छाछ भरी जाती थी, जिससे वह छाछ की चिकनाई सोख ले। उसके बाद घी रखने के काम लिया जाता था। ऐसे घड़े पीड़ी-दरपीड़ी चलते थे और उन्हें घर में घी का घड़ा के नाम से ही अभिहित किया जाता था। अत: बहुत से लोग उसे जन्म से घी के घड़े के रूप में ही जानते थे, घी के घड़े के नाम से ही जानते थे। यहाँ इसीप्रकार का घड़ा और उसे जन्म से ही घी के घड़े के रूप में जाननेवाले व्यक्ति को उदाहरण के रूप में लिया गया है। ___यदि कोई ऐसा व्यक्ति यह मानले कि जिसे घी का घड़ा कहा जाता है, वह घी से ही बना होगा, घीमय होगा; तो उसे समझाते हैं कि जो यह घी का घड़ा है वह घी से नहीं बना है, घीमये नहीं है; अपितु मिट्टी से ही बना है, मिट्टीमय ही है। ___ इसीप्रकार इस अज्ञानी लोक को अनादिकाल से एक अशुद्धजीव ही प्रसिद्ध है, वर्णादिमय जीव ही प्रसिद्ध है; रागादिमय जीव ही प्रसिद्ध है; वह शुद्धजीव को जानता ही नहीं है, वर्णादिरहित जीव को जानता ही नहीं है ; रागादिरहित जीव को जानता ही नहीं है; अत: उसे समझाते हुए कहते हैं कि जो यह वर्णादिमान जीव है, वह वर्णादिमय नहीं है, अपितु ज्ञानमय ही है; जो यह रागादिमान जीव है, वह रागादिमय नहीं, ज्ञानमय ही है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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