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गाथा १२
होना प्रयोजनवान है; और जिन्हें श्रद्धान-ज्ञान तो हुआ है किन्तु साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई - उन्हें पूर्वकथित कार्य, परद्रव्य का आलम्बन छोड़नेरूप अणुव्रत-महाव्रत का ग्रहण, समिति, गुप्ति और पंचपरमेष्ठी के ध्यानरूप प्रवर्तन तथा उसीप्रकार प्रवर्तन करनेवालों की संगति एवम् विशेष जानने के लिए शास्त्रों का अभ्यास करना इत्यादि व्यवहारमार्ग में स्वयं प्रवर्तन करना और दूसरों को प्रवर्तन कराना - ऐसे व्यवहारनय का उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान है । ___ व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा गया है, किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोगरूप व्यवहार को ही छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति तो हुई नहीं है, इससे उल्टा अशुभोपयोग में आकर, भ्रष्ट होकर, चाहे जैसी स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादि गति तथा परम्परा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा । __इसलिए शुद्धनय का विषय जो साक्षात् शुद्ध आत्मा है, उसकी प्राप्ति जबतक न हो तबतक व्यवहार भी प्रयोजनवान है - ऐसा स्याद्वादमत में श्रीगुरुओं का उपदेश है ।"
उक्त सन्दर्भ में पण्डितप्रवर टोडरमलजी के विचार द्रष्टव्य हैं -
"निश्चयनय से जीव का स्वरूप गुणस्थानादि विशेषों से रहित अभेद वस्तु मात्र ही है और व्यवहारनय से गुणस्थानादि विशेषों से सहित अनेक प्रकार है । वहाँ जो जीव सर्वोत्कृष्ट, अभेद, एक स्वभाव को अनुभव करते हैं, उनको तो शुद्ध उपदेशरूप जो शुद्ध निश्चयनय है, वही कार्यकारी है; किन्तु जो स्वानुभव दशा को प्राप्त नहीं हुए हैं अथवा स्वानुभव दशा से छूटकर सविकल्प दशा में आ गये हैं - इसप्रकार अनुत्कृष्टदशा को प्राप्त हैं, अशुद्धस्वभाव में स्थित हैं; उनके लिए व्यवहारनय प्रयोजनवान है।" १. सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पीठिका, पृष्ठ ९-१०