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समयसार अनुशीलन है, गुण-पर्यायवान है, उसका स्व-परप्रकाशक ज्ञान अनेकाकाररूप एक है और वह जीवपदार्थ आकाशादि से भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप है तथा अन्य द्रव्यों के साथ एकक्षेत्र में रहने पर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता। ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है।
जब वह अपने स्वभाव में स्थित हो, तब स्वसमय है और जब परस्वभाव राग-द्वेष-मोहरूप होकर रहे, तब परसमय है।
इसप्रकार जीव के द्विविधता आती है।"
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि मूल गाथा में तो स्वसमय और परसमय की ही चर्चा की है, उन्हें ही परिभाषित किया है। समय की तो बात ही नहीं की; पर टीका में मुख्यरूप से समय की बात की जा रही है। इसका क्या कारण है?
आचार्य कुन्दकुन्ददेव प्रमाण के विषयभूत समय नामक जीवद्रव्य का कथन पंचास्तिकाय और प्रवचनसार नामक ग्रन्थ में विस्तार से कर चुके हैं; अत: यहाँ उसका विवेचन उन्हें अभीष्ट नहीं है । इस ग्रन्थराज में तो वे द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत आत्मद्रव्य का स्वरूप बताना चाहते हैं । यही कारण है कि उन्होंने ग्रन्थ का नाम समयसार रखा है। समय माने पर से पृथक् गुण-पर्यायवाला जीवद्रव्य, प्रमाण का विषयरूप जीव-द्रव्य; और समयसार का अर्थ होता है पर और पर्याय से पृथक् त्रिकाली ध्रुव आत्मवस्तु । समय के साथ सार लग जाने से पर्याय का निषेध हो जाता है।
अब रही यह बात कि जब आचार्य कुन्दकुन्द ने समय का स्वरूप स्पष्ट नहीं किया तो उसी गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र समय के स्वरूप को इतने विस्तार से क्यों स्पष्ट कर रहे हैं। ___अरे भाई! विस्तार से कहाँ, संक्षेप में ही तो समझाया है। पंचास्तिकाय एवं प्रवचनसार के विस्तृत विवेचन को मात्र छह-सात पंक्तियों में समेट कर ही तो बात की है। आचार्य अमृतचन्द समय