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________________ 87 गाथा ७ इसीकारण इसका नाम द्रव्य है। बस यही द्रव्य द्रव्यदृष्टि का विषय बनता है, इसमें अपनापन स्थापित होना ही सम्यग्दर्शन है। इसके विरुद्ध अपनी आत्मवस्तु के विशेष, भेद तथा उसकी अनित्यता एवं अनेकता की पर्यायसंज्ञा है और इनमें अपनापन होना ही मिथ्यादर्शन है। ___ द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत इस द्रव्य को ही यहाँ शुद्धद्रव्य कहा है और इसे विषय बनानेवाले नय को शुद्धनय, निश्चयनय या शुद्धनिश्चयनय कहा गया है। इस गाथा में निश्चय-व्यवहार की 'अभेद सो निश्चय और भेद सो व्यवहार' इस परिभाषा को मुख्य किया गया है। यही कारण है कि यहाँ अभेद को निश्चय और गुणभेद को व्यवहार कहा गया है। अग्नि के दाहक, पाचक एवं प्रकाशक स्वभाव का उदाहरण देते हुए आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं__"जिसप्रकार अभेदरूप निश्चयनय से अग्नि एक ही है – ऐसा निश्चय करके बाद में भेदरूप व्यवहारनय से इसप्रकार प्रतिपादित करते हैं कि वह अग्नि जलाती है, इसलिए दाहक है; पकाती है, इसलिए पाचक है; और प्रकाश करती है, इसलिए प्रकाशक है। इसप्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा विषय के भेद से वही अग्नि तीन प्रकार की कही जाती है। उसीप्रकार यह जीव अभेदरूप निश्चयनय से शुद्धचैतन्यमात्र होते हुए भी भेदरूप व्यवहारनय से इसप्रकार प्रतिपादित करते हैं कि यह जीव जानता है, इसलिए ज्ञान है; देखता है, इसलिए दर्शन है; और आचरण करता है, इसलिए चारित्र है। इसप्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा विषय के भेद से वही जीव तीन प्रकार का भी कहा जाता है, तीन भेदरूप भी हो जाता है।"
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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