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________________ 199 गाथा १५ "सामान्यज्ञान के आविर्भाव और विशेषज्ञान के तिरोभाव से जब ज्ञानमात्र का अनुभव हो, तब ज्ञान प्रगट अनुभव में आता है । देखो, रागमिश्रित ज्ञेयाकार ज्ञान जो पूर्व में था, उसकी रुचि छोड़कर और ज्ञायक की रुचि का परिणमन करके सामान्यज्ञान का पर्याय में अनुभव करने को सामान्यज्ञान का आविर्भाव व विशेषज्ञान का तिरोभाव कहते हैं। __ यह पर्याय की बात है । ज्ञान की पर्याय में अकेला ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान का वेदन होना और शुभाशुभ ज्ञेयाकार ज्ञान के ढक जाने को सामान्यज्ञान का आविर्भाव और विशेष ज्ञेयाकार ज्ञान का तिरोभाव कहते हैं और इसतरह ज्ञानमात्र का अनुभव करते हुए ज्ञान आनन्दसहित ' पर्याय में अनुभव में आता है। यहाँ सामान्यज्ञान का आविर्भाव अर्थात् त्रिकालीभाव का आविर्भाव – यह बात नहीं है। सामान्यज्ञान अर्थात् शुभाशुभ ज्ञेयाकार रहित अकेले ज्ञान का पर्याय में प्रगटपना । अकेले ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान का अनुभव - यह सामान्यज्ञान का आविर्भाव है। ज्ञेयाकार रहित अकेला प्रगटज्ञान सामान्यज्ञान है और इसका विषय त्रिकाली है। जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयों में आसक्त हैं, उन्हें यह आत्मा स्वाद में नहीं आता। चैतन्यस्वरूप निजपरमात्मा की जिन्हें रुचि नहीं है, ऐसे अज्ञानी जीवों को या जो परज्ञेयों में आसक्त हैं, व्रत, तप, दया, दान, पूजा, भक्ति आदि व्यवहार रत्नत्रय के परिणामों में आसक्त हैं, शुभाशुभ विकल्पों के जानने में रुक गये हैं; ऐसे ज्ञेयलुब्ध जीवों को आत्मा के अतीन्द्रियज्ञान और आनन्द का स्वाद नहीं आता।" प्रश्न -यह तो अनुभव के काल की बात हुई। अनुभव के काल में तो सामान्यज्ञान का आविर्भाव और विशेषज्ञान का तिरोभाव रहता ही है, पर प्रश्न तो यह है कि जिन्हें आत्मा का अनुभव हो गया है और १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ २६२
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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