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________________ 89 यद्यपि आत्मा तो अनन्त गुणों का अधिष्ठाता एक धर्मी है, सहभावी पर्याय है नाम जिनका, ऐसे अनन्त गुणों का अखण्डपिण्ड है; क्योंकि धर्म और धर्मी में, गुण और गुणी में स्वभाव से भी अभेद होता है; तथापि जो लोग उस अभेद, अखण्ड धर्मी आत्मा को समझते नहीं हैं; उन्हें समझाने के लिए आचार्यदेव धर्मों और गुणों के भेद करके समझाते हैं; पर धर्मों के माध्यम से समझाते तो एक धर्मी को ही हैं, गुणों के माध्यम से भी समझाते तो एक गुणी को ही हैं। समझाने की इस प्रक्रिया का नाम ही व्यवहार है; पर जब अभेद - अखण्ड आत्मा का अनुभव करते हैं तो एकमात्र शुद्ध ज्ञायकभाव ही अनुभव में आता है, ज्ञान दर्शन - चारित्र का भेद दिखाई नहीं देता। तात्पर्य यह है कि अनुभव में ज्ञान - दर्शन - चारित्र भिन्न-भिन्न दिखाई नहीं देते, एक त्रिकालीध्रुव नित्य, अभेद, अखण्ड भगवान आत्मा ही दिखाई देता है I - गाथा ७ अनुभव में जो एक अभेद अखण्ड नित्य ज्ञायकभाव दिखाई देता है, वही दृष्टि का विषय है, उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उसी में अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है, एकमात्र वही ध्यान का ध्येय है; अधिक क्या कहें मुक्ति के मार्ग का मूल आधार वही ज्ञायकभावरूप भगवान आत्मा है । ― 'वह भगवान आत्मा अन्य कोई नहीं, स्वयं मैं ही हूँ' – ऐसी दृढ़आस्था, स्वानुभवपूर्वक दृढ़प्रतीति, तीव्ररुचि ही वास्तविक धर्म है, सच्चा मुक्ति का मार्ग है । इस ज्ञायकभाव में अपनापन स्थापित करना ही आत्मार्थी मुमुक्षु भाइयों का एकमात्र कर्त्तव्य है । परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत, व्यवहारातीत, परमशुद्ध, निज निरंजन नाथ ज्ञायकभाव का स्वरूप स्पष्ट करना ही समयसार का मूल प्रतिपाद्य है और इसी शुद्ध ज्ञायकभाव का स्वरूप इन छठवीं-सातवीं गाथाओं में बताया गया है । अतः ये गाथाएं समयसार की आधारभूत गाथाएं हैं।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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