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________________ 479 कलश ४५ हो पाये कि यह ज्ञायकभावरूप भगवान आत्मा अत्यन्त विकसित अपनी चैतन्यशक्ति से विश्वव्यापी होता हुआ अतिवेग से अपने आप ही प्रकट प्रकाशित हो उठा। इस कलश के आशय को स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - "इस कलश का आशय दो प्रकार का है - (१) उपर्युक्त ज्ञान का अभ्यास करते-करते जहाँ जीव और अजीव - दोनों स्पष्ट भिन्न समझ में आये कि तत्काल ही आत्मा का निर्विकल्प अनुभव हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ। – एक आशय तो इसप्रकार है। (२) दूसरा आशय इसप्रकार है कि जीव-अजीव का अनादिकालीन संयोग पूर्णत: अलग-अलग होने से पूर्व अर्थात् जीव का मोक्ष होने के पूर्व, भेदज्ञान के भाते-भाते अमुकदशा होने पर निर्विकल्प धारा जगी, जिसमें केवल आत्मा का अनुभव रहा और वह श्रेणी अत्यन्त वेग से आगे बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान प्रगट हुआ और फिर अघातिकर्मों का नाश होने पर जीवद्रव्य अजीव से पूर्णतः भिन्न हुआ। जीव और अजीव के भिन्न होने की यही रीति है।" ज्ञायकभाव प्रकाशित हो उठा का एक तो यह अर्थ है कि आत्मज्ञान हो गया, आत्मानुभूति हो गई, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो गया तथा दूसरा अर्थ यह है कि केवलज्ञान हो गया। पहले अर्थ में मिथ्याज्ञान के अभाव की बात है और दूसरे अर्थ में अल्पज्ञान के अभाव की बात है; पहले अर्थ में सम्यग्ज्ञानी होने की बात है और दूसरे अर्थ में केवलज्ञानी होने की बात है। ___ पहले अर्थ में यह स्पष्ट होता है कि ज्ञायकभाव हमारे ज्ञान का ज्ञेय बन गया और दूसरे अर्थ में यह स्पष्ट है कि सर्वज्ञस्वभावी ज्ञायकभाव का सर्वज्ञस्वभाव पर्याय में प्रगट हो गया, सर्वज्ञता प्रगट हो गई।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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