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________________ 109 गाथा ११ जबतक जीव व्यवहार में मग्न है, तबतक आत्मा के ज्ञान-श्रद्धानरूप निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है। - ऐसा जानना।" यह गाथा और इसकी टीका के पढ़ने से एक बात एकदम स्पष्ट होती है कि सभीप्रकार के व्यवहारनय अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं और एकमात्र शुद्धनय ही भूतार्थ है, सत्यार्थ है। ___ अब यहाँ एक जिज्ञासा सहज ही उत्पन्न होती है कि जिन्हें यहाँ अभूतार्थ कहा जा रहा है, वे व्यवहारनय कितने प्रकार के हैं, कौनकौन हैं; शुद्धनय क्या है? इन सबका स्वरूप जाने बिना समयसार को समझ पाना संभव नहीं लगता, क्योंकि समयसार में इन नयों का प्रयोग बार-बार आता है । वस्तुत: बात तो यह है कि नयों को समझे बिना जिनागम के किसी भी शास्त्र का मर्म समझ पाना संभव नहीं है; क्योंकि समस्त जिनागम नयों की भाषा में ही निबद्ध है; तथापि समयसार को समझने के लिए कम से कम अध्यात्मनयों का स्वरूप समझना तो अत्यन्त आवश्यक नयों के स्वरूप को विस्तार से जानने के लिए 'परमभावप्रकाशक नयचक्र'* का स्वाध्याय किया जाना चाहिए; क्योंकि उसमें सभी प्रकार के नयों का आगम के आलोक में विस्तार से निरूपण है। अध्यात्मनयों के संदर्भ में भी उसमें सर्वांग निरूपण है। प्रश्न - उसका स्वाध्याय तो जिज्ञासु पाठक करेंगे ही, पर अध्यात्मनयों की सामान्य जानकारी तो यहाँ भी दी जानी चाहिए? उत्तर -जो नय आत्मा के स्वरूप को समझने-समझाने में ही काम आते हैं, उन्हें अध्यात्मनय कहते हैं। * परमभावप्रकाशक नयचक्र : डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल; पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर-३०२०१५
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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