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________________ 175 गाथा १४ संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि - ये छह वृद्धिरूप पर्यायें हैं । अनन्त भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि, अनन्तगुणहानि – ये छह हानिरूप पर्यायें हैं । इसप्रकार छह वृद्धिरूप और छह हानिरूप पर्यायें जानना चाहिए ।" प्रत्येक द्रव्य में आगमप्रमाण से सिद्ध अनन्त अविभागप्रतिच्छेद वाला अगुरुलघुगुण स्वीकार किया गया है, जिसका छह स्थान पतित वृद्धि और हानि के द्वारा वर्तन होता रहता है । प्रश्न – औपशमिक भावों में कर्म का उपशम निमित्त होता है, क्षायोपशमिक भावों में कर्म का क्षयोपशम निमित्त होता है, क्षायिक भावों में कर्म का क्षय निमित्त होता है, औदयिकभावों में कर्म का उदय निमित्त होता है । अतः शुद्धनय के विषय में इनके निषेध की बात तो समझ में आती है; परन्तु इस षट्गुणी हानि - वृद्धिरूप स्वभाव अर्थपर्यायों में तो कोई भी कर्म निमित्त नहीं होता है। यह तो एक सहज परिणमन है । अतः शुद्धनय के विषय में इसके निषेध की क्या आवश्यकता है? उत्तर - यह स्वभाव अर्थपर्याय भी वृद्धि हानि रूप होने से विकल्पोत्पादक है, इसके आश्रय से भी उपयोग स्थिर नहीं हो सकता । अतः ध्यान के ध्येय में, श्रद्धान के श्रद्धेय में और शुद्धनय के विषय में इसका भी निषेध अभीष्ट है । इसप्रकार यह स्पष्ट हुआ कि नियत विशेषण से शुद्धनय के विषय में षट्गुणीहानि - वृद्धिरूप पर्यायों और औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक भावरूप अर्थपर्यायों का भी निषेध हो गया है । १. आचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ५, सूत्र ७
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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