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कलश १
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आत्मा ही है; क्योंकि उसके आश्रय से मुक्तिमार्ग प्रगट होता है । यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्रदेव इस ग्रन्थाधिराज की टीका आरम्भ करने के पूर्व मंगलाचरण के रूप में उसे ही स्मरण करते हैं, करते हैं ।
नमन
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यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि मंगलाचरण में तो इष्टदेव को नमस्कार किया जाता है । यहाँ इष्टदेव को नमस्कार न करके समयसार को नमस्कार क्यों किया गया है ?
समयसाररूप निज भगवान आत्मा ही हम सभी को परम इष्ट है; क्योंकि उसी की आराधना से हम सबका कल्याण होनेवाला है । वह भगवान आत्मा ही स्वयं देवाधिदेव है; क्योंकि जितने आत्मा आजतक अरहंत और सिद्धरूप देव बने हैं, वे इस समयसाररूप भगवान आत्मा की आराधना करके ही बने हैं
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यदि पर्याय की दृष्टि से विचार करें तो सर्वज्ञपर्याय से संयुक्त अरहंत और सिद्ध भगवान ही समयसार हैं । तथा समयसार नामक ग्रन्थ शास्त्र तो है ही और उसके कर्त्ता आचार्य कुन्दकुन्ददेव हैं। इसप्रकार समयसार शब्द से सच्चे देव शास्त्र - गुरु का भी स्मरण हो गया ।
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समयसार ग्रन्थ की टीका के आरम्भ में समयसार शब्द के माध्यम से त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा एवं देव-शास्त्र-गुरु का स्मरण करना आचार्य अमृतचन्द्र की अपनी विशेषता है। इसप्रकार का प्रयोग अष्टसहस्त्री के मंगलाचरण में भी हुआ है, जहाँ श्रीवर्द्धमान और समन्तभद्र शब्दों का प्रयोग व्यक्तियों के नाम के अर्थ में भी हुआ है और चौबीसों तीर्थंकरों के विशेषणों के रूप में भी हुआ है।
'केवलज्ञानरूपी श्री से वर्द्धमान (श्रीवर्द्धमान) और चारों ओर से भद्र (समन्तभद्र) चौबीसों ही तीर्थंकरों को नमस्कार करके
१. श्रीवर्द्धमानमभिवन्द्यसमन्तभद्र I