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समयसार अनुशीलन
उक्त छन्द में भेदज्ञान की उपयोगिता जबतक मुक्ति प्राप्त न हो, तबतक बताई गई है । तात्पर्य यह है कि ज्ञानी - अज्ञानी सभी को भेदज्ञान की भावना भानी चाहिए । मिथ्यात्व की भूमिका में दर्शनमोह के अभाव के लिए और सम्यग्दर्शन होने के बाद चारित्रमोह के अभाव के लिए यह भावना भाई जानी चाहिए। परमज्योति प्रगट हो जाने पर, केवलज्ञान हो जाने पर तो कोई विकल्प शेष रहता ही नहीं है । अतः वहाँ इस भेदज्ञान की भावना की आवश्यकता भी नहीं रहती है; विकल्पात्मक भावना की आवश्यकता नहीं रहती है, क्योंकि वहाँ तो भेदज्ञान का फल सम्पूर्णतः प्रगट हो गया है।
इसप्रकार इस जीवाजीवाधिकार का समापन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि इसप्रकार जीव और अजीव अलग-अलग होकर रंगभूमि में से बाहर निकल गये ।
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आचार्य अमृतचन्द्र के समापन वाक्य का भाव स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं
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जीवाजीवाधिकार में पहले रंगभूमिस्थल कहकर, उसके बाद टीकाकार आचार्य ने ऐसा कहा कि नृत्य के अखाड़े में जीव- अजीव दोनों एक होकर प्रवेश करते हैं और दोनों ने एकत्व का स्वांग रचा है । वहाँ भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष ने दोनों को पृथक् जाना; इसलिए स्वांग पूरा हुआ और दोनों अलग-अलग होकर अखाड़े से बाहर निकल गये । - इसप्रकार अलंकारपूर्वक वर्णन किया । "
वेश बदलने की सफलता तभी तक है; जबतक की कोई वास्तविकता न जान ले । वेश बदलकर काम करनेवाले तभी तक अपना काम सफलतापूर्वक करते रहते हैं; जबतक कि वे पहिचाने नहीं जाते । पहिचाने जाने पर वे अपनी भलाई भाग जाने में ही समझते हैं।
लोक की इस स्थिति को नाटक में भी स्वीकार किया जाता है । अभिनेता तो वही चतुर है, जिसके वास्तविक रूप को लोग जान ही