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समयसार अनुशीलन
दोनों अर्थों में से जो भी अर्थ किया जायगा, छन्द में समागत सम्पूर्ण विशेषणों को उसी अर्थ के अनुरूप समायोजित किया जायगा ।
पहले अर्थ में दर्शनमोह के नाश के लिए करणलब्धि में होनेवाले तीन करणों की बात है और दूसरे अर्थ में चारित्रमोह के नाश के लिए क्षपक श्रेणी में होनेवाले तीन करणों की बात है। पहले अर्थ में दर्शनमोह के अभावपूर्वक मोक्षमार्ग आरंभ करने की बात है और दूसरे अर्थ में चारित्रमोह के नाशपूर्वक पूर्णत: निर्मोह होने की बात है, मोक्षमार्ग की पूर्णता प्राप्त करने की बात है । पहले अर्थ में मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी पर कदम रखने की बात है और दूसरे अर्थ में मोक्षमहल में प्रवेश करने की बात है ।
कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इस कलश का भावानुवाद करते समय दोनों ही अर्थों को समेट लेते हैं ।
उनका वह भावानुवाद इसप्रकार है
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( सवैया इकतीसा )
जैसैं करवत एक काठ बीच खंड करै,
जैसैं राजहंस निरवारै दूध जल कौं । तैसैं भेदग्यान निज भेदक-सकति सेती,
भिन्न-भिन्न करै चिदानंद पुदगल कौं । अवधि कौं धावै मनपर्यो की अवस्था पावै,
उमगि कैं आवै परमावधि के थल कौं । याही भांति पूरन सरूप को उदोत धेरै,
करै प्रतिबिंबित पदारथ सकल कौं ॥ १४ ॥ जिसप्रकार करवत (आरा) एक काष्ठ में दो खण्ड कर देता है और जिसप्रकार राजहंस दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है; उसीप्रकार आत्मा भेदविज्ञान की भेदक शक्ति से चिदानन्द आत्मा और पुद्गल को अलग-अलग कर देता है, अलग-अलग जान लेता है । पुद्गल से भिन्न आत्मा को जानकर उसमें ही अपनापन कर, उसमें ही