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समयसार अनुशीलन
आकुलतामय दुःखरूप है । इसलिए वे चेतन नहीं, जड़ हैं। चैतन्य का
अनुभव निराकुल है, वही जीव का स्वभाव है
ऐसा जानना । "
रागादिभाव चैतन्य से भिन्न हैं; क्योंकि वे चैतन्य की सर्व अवस्थाओं में व्याप्त नहीं होते । अत: उनके माध्यम से भगवान आत्मा को कैसे जाना जा सकता है ?
अरे भाई ! उनसे तो भिन्नता करनी है। जिनसे भिन्नता करनी है, उनसे ही आत्मा को पहिचानने की बात करना कहाँ की समझदारी हैं ? उनसे तो भेदज्ञान की भावना को नचाना है; क्योंकि इस भेदज्ञान की भावना को अनवरत रूप से नचाने से ही आगे का मार्ग निकलता है; भेदज्ञान की तीव्र भावना में से ही अभेद आत्मा के अनुभव का मार्ग प्रशस्त होता है |
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अत: आगामी कलश में आचार्यदेव कहते हैं कि इसतरह भेदज्ञान की भावना को धारावाही रूप से नचाते - नचाते जीव और अजीव का प्रकट विघटन हुआ नहीं कि भगवान आत्मा अनुभव में प्रकाशित हो उठा, अनुभव में प्रतिष्ठित हो गया ।
( मन्दाक्रान्ता )
इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा, जीवाजीवौ स्फुटबिघटनं नैव यावत्प्रयातः । विश्वं व्याप्य प्रसभविकसद्व्यक्तचिन्मात्रशक्त्या, ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ॥ ४५ ॥ ( हरिगीत )
जब इसतरह धाराप्रवाही ज्ञान का आरा चला। तब जीव और अजीव में अतिविकट विघटन हो चला ॥ अब जबतलक हों भिन्न जीव अजीव उसके पूर्व ही । यह ज्ञान का घनपिण्ड निज ज्ञायक प्रकाशित हो उठा ॥ ४५ ॥
इसप्रकार ज्ञानरूपी करवत (आरा) के निरन्तर चलाये जाने पर
जबतक जीव और अजीव दोनों ही प्रकटरूप से अलग-अलग नहीं