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समयसार अनुशीलन
'देह-चेतन एक हैं' - यह वचन है व्यवहार का। 'ये एक हो सकते नहीं' - यह कथन है परमार्थ का॥२७॥ इस आतमा से भिन्न पुद्गल रचित तन का स्तवन। कर मानना कि हो गया है केवली का स्तवन ।।२८।। परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन। केवलि-गुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन ।।२९।। वर्णन नहीं है नगरपति का नगर-वर्णन जिसतरह। केवली-वंदन नहीं है देह वंदन उसतरह ॥३०॥ जो इन्द्रियों को जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। वे हैं जितेन्द्रिय जिन कहें परमार्थ साधक आतमा॥३१॥ मोह को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितमोह जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।।३२।। सब मोह क्षय हो जाय जब जितमोह सम्यक्रमण का। तब क्षीणमोही जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।।३३।। परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे। तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है।।३४।। जिसतरह कोई पुरुष पर को जानकर पर परित्यजे। बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ॥३५॥ मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है मोह-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥३६।। धर्मादिक मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है धर्म-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥३७।। मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं। ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं॥३८।। परात्मवादी मूढजन निज आतमा जाने नहीं। अध्यवसान को आतम कहें या कर्म को आतम कहें।।३९।। अध्यवसानगत जो तीव्रता या मंदता वह जीव है। पर अन्य कोई यह कहे नोकर्म ही बस जीव है ।।४०।।