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समयसार अनुशीलन
इस अनादिकालीन महा-अविवेक के नाटक में वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, अन्य कोई नहीं; क्योंकि यह जीव तो रागादिक पुद्गल विकारों से विलक्षण शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है।
इस कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसप्रकार किया है -
( सवैया तेईसा ) या घट मैं भ्रमरूप अनादि, विसाल महा अविवेक अखारौ। तामहि और स्वरूप न दीसत, पुग्गल नृत्य करै अति भारौ॥ फेरत भेख दिखावत कौतुक, सौंजि लियें वरनादि पसारौ। मोह सौं भिन्न जुदौ जड़ सौं, चिनमूरति नाटक देखनहारौ।
इस हृदयरूपी लोक में अनादिकाल से भ्रमरूप अविवेक की एक विशाल नाट्यशाला है। उस नाट्यशाला में आत्मा का शुद्धस्वरूप तो दिखाई नहीं देता; एकमात्र पुदगल ही बड़ा भारी नृत्य कर रहा है। वह अनेक भेष बदलता है, अनेक प्रकार के कौतुक दिखाता है । यह सब पुदगल के वर्णादि गुणों का ही विस्तार है। तात्पर्य यह है कि जो भी हमें इन चर्मचक्षुओं से दिखाई दे रहा है, वह सब पुद्गल का ही विस्तार है, कार्य है, परिणमन है, खेल है। __ पुद्गलादि जड़ पदार्थों और मोह-राग-द्वेष आदि भावों से भिन्न चिन्मूर्ति भगवान आत्मा तो उक्त नाटक का दर्शकमात्र है, देखने-जानने वाला ही है, करने-धरने वाला नहीं। _४३वें कलश में कहा था कि अज्ञानी मोह में नाचता है, अथवा मोह नाचता है और इस कलश में कह रहे हैं कि पुद्गल नाचता है और चैतन्य मूर्ति आत्मा अर्थात् ज्ञानी तो उस नृत्य को मात्र देखते-जानते ही है।
वर्णादिक से लेकर गुणस्थानपर्यन्त २९ प्रकार के जो पौद्गलिक भाव हैं; उन्हें जीव मानना ही मोह में नाचना है। दृष्टि का विषयभूत