Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 480
________________ समयसार अनुशीलन हो सकती है, साधना और आराधना हो सकती है; क्योंकि आत्मा तो स्वलक्षण से स्वयं प्रगट ही है । अब आचार्यदेव आगामी कलश में आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जब बात इतनी स्पष्ट है अर्थात् जीव स्वलक्षण से प्रगट ही है तो फिर अज्ञानियों की समझ में क्यों नहीं आता ? ( वसंततिलका ) जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं, ज्ञानीजनोऽनुभवति स्वयमुल्लसंतम् । अज्ञानिनो निरवधि प्रविजृम्भितोऽयं, 474 मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ॥ ४३ ॥ ( हरिगीत ) निज लक्षणों की भिन्नता से जीव और अजीव को । जब स्वयं से ही ज्ञानिजन भिन-भिन्न ही हैं जानते ॥ जग में पड़े अज्ञानियों का अमर्यादित मोह यह । अरे तब भी नाचता क्यों खेद है आश्चर्य है ॥ ४३ ॥ आचार्यदेव खेद और आश्चर्य व्यक्त करते हुए कह रहे हैं कि जब जीव और अजीव अपने सुनिश्चित लक्षणों से स्वयं ही उल्लसित होते हुए भिन्न-भिन्न प्रकाशमान हैं और ज्ञानीजन उन्हें भिन्न-भिन्न जानते हैं, पहिचानते हैं, अनुभव करते हैं; तब भी अज्ञानियों में पर में एकत्व का अनादि - अमर्यादित यह व्यामोह न जाने क्यों व्यापता है, यह मोह न जाने क्यों नाचता है ? यह बहुत ही आश्चर्य और खेद की बात है । यह तो अज्ञान की ही महिमा है, पर में एकत्व के मोह की ही महिमा है, मिथ्यात्व की ही महिमा है कि इतनी स्थूल बात भी अज्ञानी की समझ में नहीं आती। - इस कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसप्रकार किया गया है - -


Page Navigation
1 ... 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502