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समयसार अनुशीलन
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यद्यपि भगवान आत्मा अमूर्तिक महापदार्थ है, तथापि अमूर्तत्व को भगवान आत्मा की पहिचान का चिन्ह नहीं माना जा सकता है, उसे आत्मा का लक्षण नहीं बनाया जा सकता है; क्योंकि लक्षण वह होता है, जिसमें अव्याप्त, अतिव्याप्त और असंभव दोष न हो।
जिस लक्षण की उपस्थिति लक्ष्य में संभव ही न हो, उस लक्षण को असंभव दोष से युक्त लक्षण कहते हैं अथवा असंभव दोष से युक्त लक्षणाभास कहते हैं। जो लक्षण पूरे लक्ष्य में व्याप्त न हो, उसे अव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं और जो लक्षण अलक्ष्य में भी पाया जाय, उसे अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं । सही लक्षण तो वही होता है, जो पूरे लक्ष्य में प्राप्त हो और अलक्ष्य में प्राप्त न हो तथा लक्ष्य में जिसकी उपस्थिति असंभव न हो।
उक्त कसौटी के आधार पर अब अमूर्तत्व लक्षण की निर्दोषता पर विचार करते हैं।
द्रव्य छह प्रकार के होते हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें जीव को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अजीवद्रव्य कहे जाते हैं । इन छहों द्रव्यों में अकेला एक पुद्गल ही मूर्तिक है, शेष पाँच द्रव्य अमूर्तिक हैं । यदि जीव का लक्षण अमूर्तिक माना जाय तो असंभव दोष तो नहीं होगा; क्योंकि जीव अमूर्तिक है; किन्तु अव्याप्त और अतिव्याप्त दोष अवश्य होंगे।
यह अमूर्तत्व लक्षण जीव के अलावा आकाश, काल, धर्म और अधर्म - इन चार अजीव द्रव्यों में भी पाया जाता है। अत: अलक्ष्य में चला जाने से यह अतिव्याप्त दोष से दूषित है। __ जीव दो प्रकार के हैं – संसारी और मुक्त। यह अमूर्तत्व लक्षण सिद्धों में तो पाया जाता है; क्योंकि बे किसी भी नय से मूर्तिक नहीं हैं; परन्तु संसारी जीव यद्यपि निश्चय से अमूर्तिक हैं, तथापि व्यवहारनय से जिनागम में उन्हें मूर्तिक भी कहा गया है; अत: यह